Skip to main content

आत्मबोध

आत्मबोध के लिए सबसे बड़ी बाधा - मन विचार हैं जब तक मनुष्य मन से काम लेता रहता है तब तक वह अचेतना की स्थिति में मन के साथ अपने को जोड़ रहा है , इसलिये व्यक्ति को आभास नहीं होता कि वह मन का दास बन चुका है और मन के आधिपत्य को ही वह अपना अस्तित्व मान बैठता है । अतः जैसे ही व्यक्ति को इसका अभिज्ञान हो जाता है ; वह मन के अधिपत्य से अर्थात् विचारों की निरन्तर श्रृंखलाओं से मुक्ति का प्रयास करता है और तदनुसार वह स्वतन्त्रा की पहली सीढ़ी पार कर चुका होता है । इसी क्षण चेतना की एक उच्च लहर उसकी सत्ता में जागृत हो उठती है जिससे यह अनुभूति होने लगती है कि विचारों { मन } के परे ज्ञान का एक विस्तृत साम्राज्य विद्यमान है । विचार तो उस महान् सामाज्य का अंश मात्र है । जब व्यक्ति यह जान लेता है कि सत्यतः सभी महत्वपूर्ण चीजों जैसे सुन्दरता , प्रेम , सृजनात्मकता , उल्लास - आनन्द और अन्तरशान्ति का स्रोत्र मन के परे है , तभी आत्मबोध की जागृति होती है ।

इस प्रकार मन { विचारों } से ऊपर उठना ही आत्मज्ञान है । आत्मज्ञान होने पर व्यक्ति सांसारिक कार्य - व्यहार के लिये आवश्यकतानुसार पहले से अधिक केन्द्रित और बाध्यकारी विचारों के कुचक्र से छुटकारा मिल जाता है । इसलिये अन्तर में स्थिरता , प्रेम , आनन्द और शान्ति स्थापित हो जाती है । भगवद्गीता में आत्मज्ञानी व्यक्ति को ही स्थितप्रज्ञ की संज्ञा दी गई है । स्थितप्रज्ञ का तात्पर्य क्या है ? स्थितप्रज्ञ का तात्पर्य है - जिसकी बुद्धि { प्रज्ञा } स्थिर हो गई है । श्रीवासुदेव कृष्ण ने कहा है कि जिनका मन दुःखों से बेचैन नहीं होता और जिसे सुखों में अधीरतापूर्वक लालसा नहीं रहती जो राग , भय और क्रोध से मुक्त हो गया है , वह स्थिति - बुद्धि मुनि कहलाता है । जिसे किसी भी वस्तु के प्रति मोह नहीं सपने में भी , जो प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ फल को पाकर न प्रसन्न और न अप्रसन्न होता है , उसकी बुद्धि दृढ़ता के साथ स्थिर हो गई है । 

इस प्रकार आत्मज्ञान की अवस्था एक अनुभूति है । जिसे वास्तविक शब्दों में पूर्णरूप से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । 
आत्मा वह यथार्थ तत्व है जिसमें से वैयक्तिक " मैं " की भावना पैदा होती है और इसी में उसे लय होना होता है । जैसे ही " मैं " का लोप हो जाता है , उसमें वह चै7य प्रकट होता है जो अमर है और तब वह वस्तुतः बुद्धिमान बन जाता है और उसे अपने वास्तविक स्वरूप का पता चल जाता है । " मैं " का भाव व्यक्ति , शरीर और मस्तिष्क से सम्बद्ध है। जब व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है तब उसके अस्तित्व की गहराईयों में से ऐसी चीज जन्म लेती है जो उसे आलोकित कर देती है - यह असीमित , दिव्य और शास्वत है । लोग इसे स्वर्ग का साम्राज्य कहते हैं , दूसरे इसे आत्मा और अन्य लोग निर्वाण या मुक्ति कहते हैं । इस अवस्था में व्यक्ति अपने को खोता नहीं है , बल्कि पा लेता है । .....


आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन व ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि वह मन , बुद्धि व इन्द्रियों के पहुँच से परे है । जब आत्मा प्रत्यक्ष तो नहीं है और वह परोक्ष भी नहीं है । इन्द्रियाँ , मन व बुद्धि भी न तो प्रत्यक्ष होती हैं और न परोक्ष . परन्तु उनका भी ज्ञाता आत्मा उनसे अन्य होने के कारण उन्हें अपरोक्ष कहा जाता है । परन्तु आत्मा न तो प्रत्यक्ष है , न परोक्ष और न ही उसका कोई अन्य ज्ञाता होने से अपरोक्ष है - क्योँकि आत्मा का ज्ञाता अन्य कोई न होकर स्वयं आत्मा ही है जो सबका ज्ञाता है , अतः आत्मा को साक्षात अपरोक्ष कहा जाता है !

Comments

Popular posts from this blog

गायत्री मन्त्र का अर्थ

गायत्री मन्त्र का अर्थ ॐ भूर्भुवः स्वः " तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् " । =========================================== जप के पूर्ण फल को या इष्ट की असीम कृपा का भाजन बनने के लिए और जप के समय मन को अनेक कल्पनाओं से विरत करने का साधन मन्त्रार्थ चिन्तन है । इस परम शक्तिशाली गायत्री मन्त्र का अर्थ मैने अनेक लोगों के दूवारा लिखा देखा है । और उन पर व्यंगबाणों की बौछार भी । जो आप सब मनीषी इससे पूर्व पोस्ट में देख चुके हैं । इस मन्त्र का " तत् " और "यो " तथा " भर्गो " शब्द विद्वत्कल्पों की जिज्ञासा के विषय बने रहे । आलोचकों का मुहतोड़ उत्तर दिया जा चुका है । उससे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का शमन भी हुआ होगा । पर कुछ अनभिज्ञों ने तो "भर्गो " की जगह " भर्गं " करने का दुस्साहस भी किया ; क्योंकि " भर्गं " उन्हे द्वितीया विभक्ति का रूप लगा और " भर्गो " प्रथमान्त पद । पहले हम भर्ग शब्द पर चर्चा करते हैं --- भर्ग शब्द हमारे सामने हिन्दी रूप में उपस्थित होता है और जब उसका संस्कृत रूप में...

* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं – हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश...

अथ निदिध्यासनम्

<<अथ निदिध्यासनम् >> नारायण ! “ निदिध्यासन ” का मतलब क्या है ? बहुत से लोग इसका मतलब ले लेते हैं कि आँख मीँचकरबैठने को ही निदिध्यासन कहा जाता है । " वार्तिककार भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर" कहते हैं : " निदिध्यासस्वेतिशब्दात् सर्वत्यागफलं जगौ । न ह्यन्यचिन्तामत्यक्त्वा निधिध्यासितुमर्हति ॥ " आचार्यने यहाँ यह नहीं कहा है कि " मेरी बात सुनने के बाद निदिध्यासन करो " । वेदान्त शास्त्र में मनन , निदिध्यासन सहकृत श्रवण को ज्ञान के प्रति साक्षात् साधन कहा है । श्रवणकरने के लिए निदिध्यासन करें । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा " आओ बैठो , निदिध्यासन करो । मैं व्याख्यान करूँगातुम निदिध्यासन करो । " सब चीज़ों के त्याग का फल हीआचार्य ने निदिध्यासन कहा है । उस निदिध्यासन का स्वरूप क्या है ? जो निरन्तर गुरु के मुख से सुना जा रहा है , उसका निरन्तर विचार । " अन्तर " काअर्थ होता है - बीच बीच में जगह छोड़ना । " निरन्तर" का अर्थ होता है बीच बीच में जगह न छोड़ना । जिस व्यक्ति कोकिसी कर्म की चिन्ता है वह निदिध्यासन नहीं कर स...