!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १२ } ~~~
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नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजन् ! " मन का साक्षी है आत्मा , जिसका निजी रूप है आनन्द । उसे न भेददर्शन होता है , न उसका बन्धन है और न मोक्ष ही है। इस सभी को करने वाला है मन , अन्तः बन्धनादि को आत्मा का नहीं वरन् मन का ही समझना चाहिये । { मन स्वयं जड है , अतः उसका बन्धन क्या होना है ! यहाँ तात्पर्य इतना ही है कि बन्धनादि मन - रूप उपाधि से ही होता है , आत्मा का इस सबसे कोई सच्चा सम्बन्ध नहीं । }
संसार में देखा जाता है कि कोई अत्यधिक चंचल बन्दर ज़्यादा ही खेल - कुद में मस्त हो जाता है तो खुद ही अपने लिये ऐसा दुःख पैदा कर लेता है जो उसे मरने तक की पीड़ा दे डालता है । सब प्राणियों का अतिचंचल मन भी स्वयं अपने लिये हमेशा दुःखरूप संसार बनाता और बढ़ाता रहता है ।
स्वभावतः सत्त्वगुण से निर्मित मन आत्माकार ही हो यह संगत है , पर कामना के कारण वह उस स्थिति से डिगता है और विशेष दुःख पाता है । जब मछली गहरे पानी में होती है तब निर्भय रहती है । बंसरी में लटके अन्नादि बडिश को खाने के लिये जब छिछले पानी में आती है तभी वह पकड़ी जाकर मरती है । इस प्रकार मन स्वप्रकाश आनन्द रूप सागर में रहता है जो सागर स्वयं अभयरूप है किन्त जब वह विषय पाने के लिये उस आत्मस्थिति से बहिर्मुख होता है तभी सारा भय उसे घेर लेता है ।
हे राजन् ! इन्द्रियों में अभिमान होना एक खास दुःख का हेतु है । किसी चंचल बन्दर को दसों दिशाओं में रस्सियों से बाँध दें और वह कोशिश करे दौड़ने की तो हमेशा की तरह से असह्य पीड़ा को प्राप्त करेगा । इसी प्रकार मन हो तो दसों इन्द्रियों से बँधा हुआ लेकिन इससे बेखबर हो वह निडर - सा होकर जैसे ही दौड़ने लगता है वैसे ही अपनी बंधदशा महसूस कर संसार में असह्य कष्ट पाता है । कबूतर आकाश में जब इतना ऊँचा उड़ रहा होता है कि आँखों से दीखता भी नहीं तब सर्वथा स्वच्छन्द होता है । किन्तु उस मूर्ख को जब कबूतरी दीखती है तब उसके प्रति होने वाले राग से वह अन्धा हो जाता है और तत्काल पृथ्वी पर उतर आता है तथा पकड़ लिया जाता है। ऐसे ही मन आत्माकार रहे तो अत्यन्त आनन्द में रहता है । किन्तु जब यह शब्दादिरूप पिशाची को देखता है तो तुरन्त आत्मा से बाहर निकल जाता है और इस दुःखद भूमि में फँस जाता है । { जैसे घड़ा बनते समय ही आकाश से भरा पैदा होता है , ऐसे ही मन जब तक जगदाकार न ले तब तक आत्मा के आकार का ही रहे यह स्वभाविक है । संसार का आकार लेने पर ही वह दुःख पाता है यह भाव है । }
हे सौम्य ! मुनि ने राजा से यह स्पष्ट बता दिया कि प्रवृत्ति कराकर कामना दुःख देती है। अब बताते हैं कि फल देने के लिये कर्म को भी कामना की सहायता चाहिये । मुनि कहते हैं :
हे राजन् ! बकरी आदि जानवर पाश से बंध जाने पर परतन्त्र होकर एक दुःखद स्थान से और अधिक दुःखद स्थान पर आ जाता है और यह क्रम निरन्तर चलता रहता है । ऐसे ही मन कर्म के पाशों में बँधा है , जिसके कारण परवश हुआ वह बड़े कष्ट से अत्यन्त दुःखप्रद विषयदेशों में जाता रहता है । { किन्तु तभी जब मन कामना वाला हो , क्योंकि दुःखानुभव के लिये अनिष्टबुद्धि चाहिये जो काम्य से विरुद्ध के प्रति ही होती है । } जैसे मृत्यु भूतल पर सभी जगह भागती रहती है और इसका कोई कारण समझ नहीं आता , वैसे ही यह मन हमेशा आत्मा से बहिर्भूत विषयों की और ही दोड़ता है , विषयों के आकार की वृत्ति बनाता है और इसमें भी कारण कोई हो यह समझ नहीं आता ।
देहादि में " मैं बुद्धि " रूप भ्रम को कार्यविद्या कहते हैं क्योंकि यह अविद्या का कार्य है और अविद्या का मुख्य फल जो दुःखप्रदता है उसे यही संभव करता हैं , अर्थात् अविद्या को कार्यकारी यह भ्रम ही बना पाता है । यह सोदाहरण स्पष्ट कर देते हैं - यदि कोई रथारुढ व्यक्ति रथ पर घुमने का शौकिन तो हो लेकिन उसके पाँव रथ पर बाँध दिये गये हो , साथ ही उसके रथ में जुते घोड़े न केवल नशे में हों वरन् उन्हें बाँधने वाली रस्सियाँ, लगाम आदि भी ढीली हों - ऐसी स्थिति वाला रथारूढ व्यक्ति अपने घोड़े , बन्धनादि समेत किसी गड्ढे में गिरकर नष्ट ही होगा । ठीक इसी प्रकार जो पुरुष { आत्मा } मन से तादात्म्य किये बैठा है , उसके इन्द्रियरूप घोड़े सही तरह सिखाये नहीं गये हैं और उन्हें नियन्त्रित रखने बाले बँधन { लगाम आदि } मनोरूप हैं अर्थात् प्रतिक्षण बदल जाने से शिथिल हैं , वह जब देहेन्द्रियसंघातरूप रथ पर चढ़कर चलता है तब संसाररूप गड्ढे में ही गिरता है ।
संसार में दुःख पाना भी मनोहेतुक ही है । किसी शुद्ध काँच के सामने बालक खड़ा होकर अपने मुँह को टेढ़ा - मेढ़ा आदिकर बिगाड़े तो दर्पण में भी उन विक्रियाओं को देखता है । वे विक्रियायें हैं उसके मुँह पर , लेकिन देखता है वह उन्हें काँच पर जिसमें वे हैं नहीं । इसी तरह विकार आर्थात् दुःखादि होते मन में हैं , वही उनका उपादान है , वही उन विकारों का आकार ग्रहण करता है । लेकिन देखता वह उन विकारों को इस स्वयम्प्रकाश आत्मा में है, जहाँ वे वैसे हैं नहीं जैसे दर्पण में मुखविकार ! { यद्यपि मन नहीं देखता तथापि मन के कारण ही आत्मा अपने में विकार देखता है जबकि विकार आत्मा में हैं नहीं । }
हे राजन् ! मन जड है तो उसमें परिवर्तन कैसे सम्भव हो ? परिवर्तन स्वयं कोई वस्तु है नहीं , वह तो कुछ ज्ञानों की अपेक्षा से व्यवहृत होता है अर्थात् ज्ञानों के अन्तर को उपपन्न करने के लिये परिवर्तन की संकल्पना आती है। अतः मन के परिवर्तन भी ज्ञानापेक्ष ही हो सकते हैं । जड होने से स्वतः मन निर्ज्ञान है तो परिवर्तन कैसे ? - यह प्रश्न है । उत्तर है कि ज्ञानरूप आत्मा जब मन से अत्यन्त संनिहित होता है अर्थात् उससे एकमेक हो जाता है कि यह पता ही नहीं चलता कि ये दोनों पृथक् हैं , तब मन में सारे परिवर्तन हो जाते हैं । जैसे पूर्वोक्त दृष्टान्त में मुख जब दर्पण के अतिसमीप हो गया अर्थात् प्रतिबिम्बरूप से वह दर्पण में प्रविष्ट हो गया तभी दर्पण में विकार प्रतीत हुए। ऐसे ही आत्मा का आभास पाकर ही मन विकारों को प्राप्त होता है । किन्तु मन में परिवर्तन हो इसके लिये आत्मा की कोई चेष्टा नहीं , उसकी केवल संनिधि पर्याप्त है । " हे राजन् !" इस बात को एक विलक्षण दृष्टान्त देकर समझा देते हैं : जमीरा नीम्बु का एक प्रजाती है अति खट्टा पदार्थ वह पास में अगर दीख जाये तो तुरन्त मुँह में पानी आ जाता है , मन में भी या प्रसन्नता या घृणा की भावना उत्पन्न हो जाती है , जब कि इस सबके लिये बेचारे जमीरे नीम्बू ने कुछ किया नहीं है ! ऐसे ही आत्मा सद्रूप , आनन्दरूप , स्वप्रकाश अर्थात् चिद्रूप है लेकिन केवल अपनी संनिधि के कारण वह मन को विकारों में प्रयुक्त कर देता है । { यहाँ संनिधि से तादात्म्याध्यास समझना चाहिये । } आत्मा जैसे सपने में नाना प्रकार के मन पैदा कर लेता है - सपने में दीखने वाले प्राणियों को वह मनस्वी देखता है , अतः उनकी तरह उनके मन भी उसने बनाये हैं - वैसे ही जिस { व्यावहारिक या भौतिक } मन से विशिष्ट होकर वह सपना देख पाता है उसे भी आत्मा ने ही बनाया है। { अभिप्राय है कि असंग होने पर भी आत्मा को मन आदि जगत् का कारण मानना ही पड़ता है जिसे उसकी माया नामक अचिन्त्य शक्ति संभव करती है , अतः उसी सामर्थ्य से वह असंग रहते हुए ही मन को विकृत होने में समर्थ भी बना देता है । अध्यास क्योंकि सत्य नहीं है इसलिये उससे आत्मा की असंगता में कोई अन्तर नहीं आता । } सावशेष .....
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नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजन् ! " मन का साक्षी है आत्मा , जिसका निजी रूप है आनन्द । उसे न भेददर्शन होता है , न उसका बन्धन है और न मोक्ष ही है। इस सभी को करने वाला है मन , अन्तः बन्धनादि को आत्मा का नहीं वरन् मन का ही समझना चाहिये । { मन स्वयं जड है , अतः उसका बन्धन क्या होना है ! यहाँ तात्पर्य इतना ही है कि बन्धनादि मन - रूप उपाधि से ही होता है , आत्मा का इस सबसे कोई सच्चा सम्बन्ध नहीं । }
संसार में देखा जाता है कि कोई अत्यधिक चंचल बन्दर ज़्यादा ही खेल - कुद में मस्त हो जाता है तो खुद ही अपने लिये ऐसा दुःख पैदा कर लेता है जो उसे मरने तक की पीड़ा दे डालता है । सब प्राणियों का अतिचंचल मन भी स्वयं अपने लिये हमेशा दुःखरूप संसार बनाता और बढ़ाता रहता है ।
स्वभावतः सत्त्वगुण से निर्मित मन आत्माकार ही हो यह संगत है , पर कामना के कारण वह उस स्थिति से डिगता है और विशेष दुःख पाता है । जब मछली गहरे पानी में होती है तब निर्भय रहती है । बंसरी में लटके अन्नादि बडिश को खाने के लिये जब छिछले पानी में आती है तभी वह पकड़ी जाकर मरती है । इस प्रकार मन स्वप्रकाश आनन्द रूप सागर में रहता है जो सागर स्वयं अभयरूप है किन्त जब वह विषय पाने के लिये उस आत्मस्थिति से बहिर्मुख होता है तभी सारा भय उसे घेर लेता है ।
हे राजन् ! इन्द्रियों में अभिमान होना एक खास दुःख का हेतु है । किसी चंचल बन्दर को दसों दिशाओं में रस्सियों से बाँध दें और वह कोशिश करे दौड़ने की तो हमेशा की तरह से असह्य पीड़ा को प्राप्त करेगा । इसी प्रकार मन हो तो दसों इन्द्रियों से बँधा हुआ लेकिन इससे बेखबर हो वह निडर - सा होकर जैसे ही दौड़ने लगता है वैसे ही अपनी बंधदशा महसूस कर संसार में असह्य कष्ट पाता है । कबूतर आकाश में जब इतना ऊँचा उड़ रहा होता है कि आँखों से दीखता भी नहीं तब सर्वथा स्वच्छन्द होता है । किन्तु उस मूर्ख को जब कबूतरी दीखती है तब उसके प्रति होने वाले राग से वह अन्धा हो जाता है और तत्काल पृथ्वी पर उतर आता है तथा पकड़ लिया जाता है। ऐसे ही मन आत्माकार रहे तो अत्यन्त आनन्द में रहता है । किन्तु जब यह शब्दादिरूप पिशाची को देखता है तो तुरन्त आत्मा से बाहर निकल जाता है और इस दुःखद भूमि में फँस जाता है । { जैसे घड़ा बनते समय ही आकाश से भरा पैदा होता है , ऐसे ही मन जब तक जगदाकार न ले तब तक आत्मा के आकार का ही रहे यह स्वभाविक है । संसार का आकार लेने पर ही वह दुःख पाता है यह भाव है । }
हे सौम्य ! मुनि ने राजा से यह स्पष्ट बता दिया कि प्रवृत्ति कराकर कामना दुःख देती है। अब बताते हैं कि फल देने के लिये कर्म को भी कामना की सहायता चाहिये । मुनि कहते हैं :
हे राजन् ! बकरी आदि जानवर पाश से बंध जाने पर परतन्त्र होकर एक दुःखद स्थान से और अधिक दुःखद स्थान पर आ जाता है और यह क्रम निरन्तर चलता रहता है । ऐसे ही मन कर्म के पाशों में बँधा है , जिसके कारण परवश हुआ वह बड़े कष्ट से अत्यन्त दुःखप्रद विषयदेशों में जाता रहता है । { किन्तु तभी जब मन कामना वाला हो , क्योंकि दुःखानुभव के लिये अनिष्टबुद्धि चाहिये जो काम्य से विरुद्ध के प्रति ही होती है । } जैसे मृत्यु भूतल पर सभी जगह भागती रहती है और इसका कोई कारण समझ नहीं आता , वैसे ही यह मन हमेशा आत्मा से बहिर्भूत विषयों की और ही दोड़ता है , विषयों के आकार की वृत्ति बनाता है और इसमें भी कारण कोई हो यह समझ नहीं आता ।
देहादि में " मैं बुद्धि " रूप भ्रम को कार्यविद्या कहते हैं क्योंकि यह अविद्या का कार्य है और अविद्या का मुख्य फल जो दुःखप्रदता है उसे यही संभव करता हैं , अर्थात् अविद्या को कार्यकारी यह भ्रम ही बना पाता है । यह सोदाहरण स्पष्ट कर देते हैं - यदि कोई रथारुढ व्यक्ति रथ पर घुमने का शौकिन तो हो लेकिन उसके पाँव रथ पर बाँध दिये गये हो , साथ ही उसके रथ में जुते घोड़े न केवल नशे में हों वरन् उन्हें बाँधने वाली रस्सियाँ, लगाम आदि भी ढीली हों - ऐसी स्थिति वाला रथारूढ व्यक्ति अपने घोड़े , बन्धनादि समेत किसी गड्ढे में गिरकर नष्ट ही होगा । ठीक इसी प्रकार जो पुरुष { आत्मा } मन से तादात्म्य किये बैठा है , उसके इन्द्रियरूप घोड़े सही तरह सिखाये नहीं गये हैं और उन्हें नियन्त्रित रखने बाले बँधन { लगाम आदि } मनोरूप हैं अर्थात् प्रतिक्षण बदल जाने से शिथिल हैं , वह जब देहेन्द्रियसंघातरूप रथ पर चढ़कर चलता है तब संसाररूप गड्ढे में ही गिरता है ।
संसार में दुःख पाना भी मनोहेतुक ही है । किसी शुद्ध काँच के सामने बालक खड़ा होकर अपने मुँह को टेढ़ा - मेढ़ा आदिकर बिगाड़े तो दर्पण में भी उन विक्रियाओं को देखता है । वे विक्रियायें हैं उसके मुँह पर , लेकिन देखता है वह उन्हें काँच पर जिसमें वे हैं नहीं । इसी तरह विकार आर्थात् दुःखादि होते मन में हैं , वही उनका उपादान है , वही उन विकारों का आकार ग्रहण करता है । लेकिन देखता वह उन विकारों को इस स्वयम्प्रकाश आत्मा में है, जहाँ वे वैसे हैं नहीं जैसे दर्पण में मुखविकार ! { यद्यपि मन नहीं देखता तथापि मन के कारण ही आत्मा अपने में विकार देखता है जबकि विकार आत्मा में हैं नहीं । }
हे राजन् ! मन जड है तो उसमें परिवर्तन कैसे सम्भव हो ? परिवर्तन स्वयं कोई वस्तु है नहीं , वह तो कुछ ज्ञानों की अपेक्षा से व्यवहृत होता है अर्थात् ज्ञानों के अन्तर को उपपन्न करने के लिये परिवर्तन की संकल्पना आती है। अतः मन के परिवर्तन भी ज्ञानापेक्ष ही हो सकते हैं । जड होने से स्वतः मन निर्ज्ञान है तो परिवर्तन कैसे ? - यह प्रश्न है । उत्तर है कि ज्ञानरूप आत्मा जब मन से अत्यन्त संनिहित होता है अर्थात् उससे एकमेक हो जाता है कि यह पता ही नहीं चलता कि ये दोनों पृथक् हैं , तब मन में सारे परिवर्तन हो जाते हैं । जैसे पूर्वोक्त दृष्टान्त में मुख जब दर्पण के अतिसमीप हो गया अर्थात् प्रतिबिम्बरूप से वह दर्पण में प्रविष्ट हो गया तभी दर्पण में विकार प्रतीत हुए। ऐसे ही आत्मा का आभास पाकर ही मन विकारों को प्राप्त होता है । किन्तु मन में परिवर्तन हो इसके लिये आत्मा की कोई चेष्टा नहीं , उसकी केवल संनिधि पर्याप्त है । " हे राजन् !" इस बात को एक विलक्षण दृष्टान्त देकर समझा देते हैं : जमीरा नीम्बु का एक प्रजाती है अति खट्टा पदार्थ वह पास में अगर दीख जाये तो तुरन्त मुँह में पानी आ जाता है , मन में भी या प्रसन्नता या घृणा की भावना उत्पन्न हो जाती है , जब कि इस सबके लिये बेचारे जमीरे नीम्बू ने कुछ किया नहीं है ! ऐसे ही आत्मा सद्रूप , आनन्दरूप , स्वप्रकाश अर्थात् चिद्रूप है लेकिन केवल अपनी संनिधि के कारण वह मन को विकारों में प्रयुक्त कर देता है । { यहाँ संनिधि से तादात्म्याध्यास समझना चाहिये । } आत्मा जैसे सपने में नाना प्रकार के मन पैदा कर लेता है - सपने में दीखने वाले प्राणियों को वह मनस्वी देखता है , अतः उनकी तरह उनके मन भी उसने बनाये हैं - वैसे ही जिस { व्यावहारिक या भौतिक } मन से विशिष्ट होकर वह सपना देख पाता है उसे भी आत्मा ने ही बनाया है। { अभिप्राय है कि असंग होने पर भी आत्मा को मन आदि जगत् का कारण मानना ही पड़ता है जिसे उसकी माया नामक अचिन्त्य शक्ति संभव करती है , अतः उसी सामर्थ्य से वह असंग रहते हुए ही मन को विकृत होने में समर्थ भी बना देता है । अध्यास क्योंकि सत्य नहीं है इसलिये उससे आत्मा की असंगता में कोई अन्तर नहीं आता । } सावशेष .....
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