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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~~~~~~~~~ { १ } ~~~~~~~~~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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नारायण ! बृहदारण्यक उपनिषद् में आता है कि शिष्य ने गुरु के मुख से आत्मा के अनुभव से संबद्ध अनेक प्रकार की कथायें सुनकर पुनः जिज्ञासा प्रकट की :
हे भगवन् ! आपने कृपाकर महर्षि ऐतरेय द्वाना प्रतिपादित , महामुनि कौषितकि द्वारा एवं भगवान् आदित्य द्वारा उपदिष्ट नाना प्रकार के इतिहासों और कथाओं समेत आत्मज्ञान मुझे सुनाया । पहले अधिकारिजनों ने आपस में क्या विचार किया , किस निश्चय पर पहुँचे यह बताया । फिस महाराजा इन्द्र ने प्रतर्दन को , राजर्षि अजातशत्रु ने बलाकि गार्ग्य को , महर्षि दध्यङ्ङाथर्वण ने अश्विनिकुमारों को जिस तरह परमात्मा का उपदेश दिया वह क्रमशः सुस्पष्ट किया । तदनन्तर ऋषिप्रवर याज्ञवल्क्य का विविध ऋषियों से जो ब्रह्मज्ञान - विषयक संवाद हुआ वह आपने विस्तार से समझाया । सभी प्रसंगों में तरह - तरह से परमात्मा के साक्षात् स्वरूप का और उसके साक्षात्कार के उपायों का यथाशास्त्र युक्तियुक्त वर्णन आपने किया । भगवन् मेरी अभिलाषा है कि आपकी कृपा से मैं वह उपदेश भी सुन लें जो महर्षि याज्ञवल्क्य ने भूपति जनक को दिया था ।
नारायण ! शिष्य की इस प्रार्थना पर वात्सल्यवान् श्रीगुरु ने उसे वह ज्ञान सुनाया जो याज्ञवल्क्य ने जनक की सभा में विस्तार से समझाया था । गुरु जी बोले - हे शिष्य ! अथाह ज्ञान के सागररूप मुनिराज याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्य जनक को जो आत्मविद्या का उपदेश दिया वह सारा ही मैं तुम्हें सुनाता हूँ , एकाग्र होकर सुनो !
" विदग्ध शाकल्य " का निधन और ब्राह्मणों पर याज्ञवल्क्य की विजय होने तक दिन समाप्त हो चुका था । वह रात बीती , सुर्यमण्डल उदयाचल पर पहुँचा , उस समय विविध वाद्यों की कोमल ध्वनियों से , मधुरस्वर वाले बन्दियों के गीतों से तथा अप्सरा - तुल्य स्त्रियों द्वारा किये जाते नीराजनों से - विभिन्न आरतियों से - महाराजा जनक नींद से जगे । प्रातःकालिक कर्मों से निवृत्त होकर उन्होंने ब्राह्मणों और वृद्धों से सदा विजयी रहने के आशीर्वाद प्राप्त किये । फिर वे अपनी राज्यसभा की ओर चल दिये । विभिन्न बाजों के घोषों से तथा गीतों से उनका स्वागत किया जा रहा था । राजा स्वयं तो सभी आभूषणों से विभूषित थे ही , उनका सभा भवन भी रत्न - सोना - चाँदी से दसों दिशाओं को ऐसा जगमगा रहा था मानो वह पृथ्वी नहीं स्वर्ग की सभा हो ! विदेह राजा जनक उस सभा में रंगबिरंगे सिंहासन पर विराजमान हुआ । उस बुद्धिमान् नरेश को विशिष्ट त्रैवर्णिक सज्जन घेर हुए थे ।
उसी समय महायशस्वी आदित्यछात्र याज्ञवल्क्य सभा में उपस्थित हुए । वे अपनी प्रातःकालिक अग्निहोत्रादि क्रियायें सम्पन्न कर चुके थे , शिरोयुक्त गायत्री मन्त्र से अपने गुरुदेव भगवान् सूर्य की आराधना कर चुके थे और अपने सभी शिष्यों से घिरे थे जो शिष्य उनसे चारों वेदों की शिक्षा ग्रहण करने उनके अन्तेवासी थे । उन्हें आया देख अपने सभासदों सहित धर्मज्ञ राजा ने उठकर स्वागत किया और अर्घ्य - पाद्य आदि उपचारों से उनकी अर्चना की । राजा ने मुनि के लिये आसन उपस्थित किया जो स्वर्ण से { ज़री से} निर्मित था , विद्रुम आदि अनेक मूल्यवान् रत्नों से शोभित था और मोतियों की लड़ियों से सजा था । उस आसन पर बैठकर उन मुनिश्रेष्ठ ने राजा तथा सभ्यों को भी अपने आसनों पर बैठ जाने के लिये कहा । तब सभी लोग प्रसन्नतापूर्वक मुनि को प्रणाम कर आसीन हुए ।
नारायण ! सामान्य अतिथी रूप श्रीयाज्ञवल्क्य से विनयशील राजा जनक ने उसी प्रकार के सत्य और प्रिय वचन कहे जैसों का धर्मशास्त्र में विधान है। राजा ने निवेदन किया - इस भूलोक पर ब्राह्मण ही परम देवता है । क्योंकि अन्यों का क्या कहना , देवताओं के भी जन्म - स्थिति - भंग करने में उत्तम द्विज वैसे ही समर्थ होते हैं जैसे परमात्मा स्वयं इसमें समर्थ हैं । { ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मरूप होते हैं , अतः ऐसा कहना संगत है । तपस्वी ब्राह्मण अनुग्रह - शापादि द्वारा और हविरर्पणादि द्वा देवताओं के प्रति कारण बनते हैं यह भी स्पष्ट है । } श्रेष्ठ श्रोत्रिय परमात्मवेत्ता सभी प्राणियों के प्रति समान रहते हैं , उनकी बाह्य- आन्तर इन्द्रियाँ सर्वथा प्रशान्त हो चुकी होती हैं , वे सभी की प्रसन्नता से सदा प्रसन्न रहते हैं तथा उनके मन में कोई अपूर्ण संकल्प नहीं रह जाता है । ऐसे महात्मा भी भूमि पर विचरण करते हैं क्योंकि प्राणियों के प्रति अनुग्रह उन्हें प्रेरित करता है । फिर भी वे यह रहस्य प्रकट नहीं करते बल्कि घूमने का कोई और ही बहाना करते हैं । कोई कह देता है " मैं पशु धान्यादि की अपेक्षा से आया हूँ । " कोई महान् ब्रह्म के निश्चय वाले ब्राह्मण कह देते हैं " वास्तविकता के निर्णय के लिये हम घूमते हैं । हे याज्ञवल्क्य ! मैं तो ऐसा मानता हूँ कि आप जैसे ब्रह्मनिष्ठ मुझ जैसे राजाओं का उद्धार करने के लिये पधारते हैं , जो अथाह संसार - समुद्र में डूब रहे हैं । विशेषतः आपके बारे में तो यह बात और भी सत्य है । साक्षात् भगवान् सूर्य के आप शिष्य हैं । तीनों लोकों में ऐसा क्या हो सकता है जो आपकी चेष्टा का प्रयोजन हो ! ज्ञान - आनन्दस्वरूप आत्मा के अपरोक्षानुभव से आप सम्पन्न हैं । पुत्र - वित्त - लोक सम्बन्धी कोई कामना आपमें है नहीं । अतः वस्तुतः किसी मतलब से आप भ्रमण करें यह माना ही नहीं जा सकता । दीन - दुःखियों पर वात्सल्य बहाने वाले हे महर्षि ! इस संसाररूप दलदल में फँसकर दुःखी होते मेरी रक्षा करना ही वह इकलौता कार्य है जिसके लिये आपने यहाँ आने की कृपा की है । हड्डियाँ ही जिसका मूलस्तम्भ है , ऐसे दुर्गन्धयुक्त अत्यन्त घृणित इस शरीर को " यह मैं हूँ " इस तरह पकड़ कर मैं कुत्ते की तरह मौजूद हूँ । घृणास्पद शरीर में स्थित कुत्ते जैसा मेरा हाल है । छोटे - बड़े कीड़े कुत्ते के देह में पड़ जाते हैं । अनेक रोग हो जाने पर उसके कान और पूँछ गल कर गिर जाते हैं । मल से सनी किसी सूखी हड्डी को वह अपने दाँतों में फँसा कर अन्य बलशाली कुत्तों से वैर भी कर बैठता है ! इस सब से उसे प्राणान्तक कष्ट ही होता है , सुख तो थोड़ा भी नसीब नहीं होता ।
हे मुनिवर ! मैं भी ऐसी स्थिति में हूँ । यह क्षत्रिय शरीर ग्रहण कर राज्य की कामना वाला होकर मैं सुखरहित दुःख ही भोगे जा रहा हूँ । रोज भूख से पीडित होकर मैं जौ - चावल आदि स्थावर प्राणियों को और जिन्हें खाने से बचना प्रायः असम्भव है ऐसे घुन आदि को खा डालता हूँ , जैसे राक्षस लोग पुरुषों को चबा जाते हैं । इस तरह मुझ पर दुतरफा मार है : न खाऊँ तो भूख सताती है और खाने पर दुःख होता है कि मैं राक्षसों जैसा घृणित कार्य कर रहा हूँ । श्मशानों में यदि कोई शब जलने से रह जाये तो जैसे उस पर पिशाच टूट पड़ते हैं , ऐसे ही कामना का भूत चढ़ने पर मैं भी { सोती हुई अतः} शवतुल्य नारी के शरीर का भोग करने के लिये उस पर टूट पड़ता हूँ। { यहाँ भी भोग न करने पर कामना दुःख देती है तथा भोग करने पर पिशाचतुल्य हो जाने का कष्ट होता है।} । चन्दन आदि वृक्षों का शरीर सुगन्धित होता । सुगन्धि के लोभ से मैं उनके उस सुवासित देह को घिस कर अपने दुर्गंधित देह पर चर्चित करता हूँ । कितनी नीचता है ! मानो कोई दयारहित राक्षस किसी पुरुषशरीर को रगड़ कर अपने लिये लेप तैयार कर स्वयं को सजाने की कोशिश कर रहा हो ! जिस तरह राक्षस शान्त मुनियों की हत्या करते हैं , उसी तरह अविवेकग्रस्त हुआ मैं शिकार के प्रसंग में तिनके के पत्ते खाने वाले निरीह पशुओं की व्यर्थ ही हिंसा करता हूँ। तेली यन्त्र से तिलों को पेर कर जैसे तेल निकालता है ऐसे ही मैं भी प्रजाओं से कर आदि द्वारा धन ग्रहण करता हूँ । मनुष्य , हाथी , ऊँट , घोड़ा आदि के कंथों या पीठों पर चढ़कर मैं उन्हें कष्ट देता हूँ , मानो उसके कंधे आदि पर कोई असह्य पीडाप्रद गाँठ हो गयी हो ! सभा आदि में ब्राह्मणादि नीचे आसनों पर बैठे होते हैं और मैं ऊँचे आसन पर बैठता हूँ जैसे कर्णकटु आवाज वाला कौवा महल के शिखर पर चढ़ कर बैठा हो ! राज्यस्थ नानाविध धनादि की मैं उसी तरह रक्षा करता रहता हूँ जिस तरह क्रोध से लाल आँखों वाल सर्प किसी महान् खजाने पर पहरा दे रहा हो । गाँव में मैला खाने वाले सुअर की तरह मैं भी पुत्र - पत्नी आदि में आसक्ति रखकर जी रहा हूँ ।
हे मुनिवर ! आप जैसे तत्त्ववेत्ता मेरे लिये शोक करें यही योग्य है कि " अरे! इस अज्ञानी की क्या गति होगी ! " भूख आदि पीड़ा का और उसे हटाने के लिये भोग करने पर राक्षसादि के समान बनने का विचार करने पर तो लगता है कि मुझसे ज्यादा शोक के योग्य कोई है ही नहीं । निज स्वरूप के अज्ञान से उत्पन्न इस संसाररूप त्रिशूल की तीन नोकें त्रिविध ताप ही हैं। इह सूली पर चढ़े मेरी रक्षा आप अवश्य करने की कृपा करें ।
हे मुनि ! इस तरह आपके आने का अभिप्राय तो मैं समझता ही हूँ कि मुझ - सरीखो के कल्याणार्थ ही आप आये हैं । लेकिन आप जिस बहाने से पधारे हैं वह बतायें । हे ब्राह्मणोत्तम ! अपने शिष्यादिकों के सामने क्या आप यह घोषित करके आये हैं कि " राजा से बहुतेरे पशु प्राप्त करूँगा " , या यह कहकर आये हैं कि " राजा की सभा में इसलिये जा रहा हूँ ताकि विद्वानों से संवाद द्वारा तत्त्वविषयक निर्णय पर पहुँचा जाये । "
नारायण ! राजा ने जब इस तरह स्वागतपूर्वक जिज्ञासा की तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने मिथिलानरेश जनक को " सम्राट् ! " यों सम्बोधित कर कहा- " पशु - प्राप्ति और तत्त्वनिर्णय दोनों को ही बहाना बनाकर मैं यहाँ आया हूँ । तुम विवेकशील हो , अब तक जिस - किसी ब्राह्मण ने तुम्हें जो कोई ज्ञान दिया है वह यदि रहस्यभूत न हो तो मुझे बताओ , मैं सुनना चाहता हूँ । { सुनने के बाद जो मुझे समझाना उचित लगेगा वह मैं तुम्हें बताऊँगा } । सावशेष .....
नारायण स्मृतिः

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