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!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १५ } ~~~
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नारायण ! मुनि स्वयं प्रश्न उठाते हुए स्वयं उत्तर भी देते हैं । वेदान्तों की यह प्रक्रिया है। प्रश्न था कि अभाव को अनुयोगिरूप मानने वालों का अनुसरण करने से अद्वैत नहीं सिद्ध होगा क्योंकि वे लोग { अनय वादी लोग } पदार्थों को स्वरूपतः भिन्न मानते हैं । इसका उत्तर है कि जितनी बात मानने लायक हो उतनी ही वादी से ग्रहण की जाती है , उसकी सारी मान्यतायें नहीं । साथ ही जो अकेला दही खाने से नुकसान होता है पर शक्कर मिलाकर खाने से लाभ होता है , इसी तरह श्रुतिसंमत तर्क रूप शक्कर { खाँड } मिला देने पर वादी की बात भी अद्वैतानुकूल हो जाती है । वेदान्तों में बताये अद्वैत अद्वैत को हृदयङ्गम बनाने के लिये परमत का उपयोग हो जाये तो हर्ज नहीं । प्रकृत में भी इसी तरह अद्वैत सिद्ध होगा यह बताते हैं : घट को जब बाकी सब का अभाव कहते हो तो अभाव भी घटस्वरूप से भिन्न नहीं रह पायेगा । जब घट सब का अभाव है तब घट से भिन्न होकर भाव - अभाव कुछ भी रहेगा कैसे ? सबका अभाव मौजूद है तो सब भी रहें यह संभव नहीं । " घट है " कहो " सबका अभाव है " कहो बात एक ही है । अतः घट रहते उसमें अलग भाव - अभाव कुछ नहीं रहेगा तो अद्वैत { घटाद्वैत ! } सिद्ध हो गया। जिसे तुम सर्वाभाव कह रहे हो वह हमारा अद्वय ब्रह्म है । यह मत समझो कि यों घटाद्वैत ही सिद्ध हुआ क्योंकि घट के पाँच अंश हैं - " अस्ति " , " भाति " , " प्रिय " , " नाम ", और " रूप"; इनमें प्रथम तीन तो स्पष्ट ही ब्रह्मरूप हैं और " नाम - रूप " भी पञ्चीकरण- प्रकरणप्रोक्त विचार प्रक्रिया से सन्मात्र ही निश्चित होते हैं । अतः आपाततः यह घटाद्वैत है लेकिन वस्तुतः अद्वितीय ब्रह्म ही यों निर्धारित होता है । पूर्वोक्त सर्वाभावरूपता सुनकर शून्यवादी कह सकता है कि तब अभावाद्वैत ही मान्य हो गया , ब्रह्माद्वैत नहीं ।
हे राजन् ! अभाव को पदार्थ मानने के कारण भी उसे भावभिन्न नहीं कह सकते । विचारकों के व्यवहार में " पदार्थ " वही भाव कहा जाता है जिसका " है " शब्द से तादात्म्य हो क्योंकि शब्द - अर्थ का तादात्म्य मान्य नहीं है। इसलिये पदार्थ का सामान्य लक्षण हुआ " है " - शब्द द्वारा अभिधेय होना । वृक्ष आदि किसी पद का अर्थ सद्भिन्न देखा नहीं जाता तो " है " - पद का ही अर्थ सद्भिन्न { नहीं है } हो यह कैसे सम्भव है ! अतः अभाव यदि पदार्थ है तो उसे सद्रूप ही मानना अनिवार्य है { और अगर उसे पदार्थ ही नहीं मानो तो उसका विचार ही छोड़ना पड़ेगा }
नारायण ! अब यहाँ विचार करना है कि बोद्ध लोग आकाश को अभावरूप मानने हैं , वह भी गलत है क्योंकि आकाश भी घट आदि की तरह पद से तादात्म्यापन्न है अर्थात पदार्थ है और यह पर्याप्त हेतु है यह सिद्ध करने के लिये कि वह अभाव { असद् } नहीं हो सकता। { आकाश अधिकरणरूप से प्रतीत होता है - जगह में लोक हैं आदि - इसमें भी वह अभाव नहीं हो सकता ; अन्य भी हेतु हैं जिनमें वह अभावभिन्न सिद्ध होता है पर यहाँ " पदार्थ होना " कारण दिया गया है । } इसलिये अभाव को अन्य वस्तु मानना पड़ता है , न कि भावरहित { अर्थात् घटाभाव को भूतलादिरूप मानना पड़ता है , न कि सब भाववस्तुओं से अस्पृष्ट कुछ । पूछ सकते है कि फिर अभाव को " नहीं है " शब्द से क्यों कहा गया है ? उतर है कि " नहीं है " ऐसे व्यवहार का आपादक आवरण जिस पर होता है उसे " नहीं है" - यों कह दिया जाता है । छिपी चीज़ को " नहीं है " कहते हैं , इसमें वह चीज़ सद्भिन्न अर्थात् असत् नहीं सिद्ध होती । }
नारायण ! वेदान्तप्रक्रियाओं में जैसे अध्यस्त साँप का अभाव अधिष्ठाभूत मालादिरूप ही कहा जाता है वैसे जडस्वरूप अध्यस्त प्रपञ्च का अभाव आत्मा ही है । दुःख भी व्यापक आत्मा पर कल्पित है अतः आनन्दरूप महादेव ही दुःखाभाव समझे जाने चाहिये ।
हे सौम्य ! मुनि के कथन से निष्कर्ष यह निकला कि ज्ञान स्वप्रकाश , सुख और भेदरहित है अतः आनन्दात्मा के सर्वथा समान होने से " महावाक्य " उन्हें आनन्दात्मा ही कहते हैं। { ज्ञानों में अनेकत्व भ्रमसिद्ध है अत एव उस भ्रम को मिटाने के लिये श्रुतिप्रमाण " उन्हें " अद्वितीय ब्रह्मरूप बताता है । }
सजातीय और स्वगत भेद न होने पर भी बोधों में अपने विजातीयों से अर्थात् विषयों से भेद क्यों नहीं रहेगा ? इसलिये कि बोधभेद ही विषयभेद का साधक है , जब बोधभेद का निराश हो गया तो विषयभेद रहेगा ही नहीं कि बोधों में विजातीयभेद की सम्भावना हो ! यह भी मुनि ने स्पष्ट करते हुए कहा :
हे राजन् ! जब ज्ञानों में भेद नहीं है तब ज्ञेयों में भेद कैसे होगा ? " घट " आदि रूप जो बोध { अर्थात् घटज्ञान } भेदरहित अर्थात् एक समझा जाता है उसके विषयभूत घटादि में भेद है ऐसा उस ज्ञान के कारण कहीं नहीं कहा जाता । { तात्पर्य है कि घटज्ञान - पटज्ञान विभिन्न हों तो इनके विषयों का भेद कहा - समझा जाये ; जब एक ही घटज्ञान होगा तो उसके विषय में भेद की चर्चा व्यर्थ है । यहाँ तक कि व्यक्तिभेद होने पर भी यदि उसका उल्लेख नहीं हो तो विषयभेद का व्यवहार नहीं होता : हमने एक घट देखा। हम कहीं गये और पीछे से घड़ा बदल गया , वहाँ दूसरा घड़ा रख दिया गया। लौटकर हम फिर देखते हैं " घड़ा है " । यहाँ दोनों " घड़ा है " ज्ञानों में फर्क नहीं तो इनके कारण घड़ों में भी फर्क नहीं माना जाता । घड़ों में तभी फर्क माना जायेगा जब ज्ञान में कोई फर्क हो जैसे पहले " लाल घड़ा है " ज्ञान हुआ हो और बाद में " काला घड़ा है " इत्यादि । इसलिये ज्ञानभेद को विषयभेद का व्यापक मानना पड़ता है । जब व्यापक ज्ञानभेद ही असिद्ध हो गया तब विषयभेद की असिद्धि का क्या कहना }
ज्ञान में भेद न होने पर भी विषयभेद होता है : ध्यान देकर सुनना - विशिष्ट ज्ञान तो एक होता है पर उसके विषय होते हैं 3 तीन - " विशेषण " , " विशेष्य " और " सम्बन्ध " । अतः ज्ञानाभेद से विषयभेद का बाध कैसे ? इसका उत्तर है कि विशेषणादि का भेद विशिष्टज्ञान से सिद्ध नहीं वरन् इससे पूर्व जो विशेषणादि के अलग - अलग ज्ञान हैं उन्हीं से सिद्ध हैं । इस बता को स्पष्ट करके बता देते हैं : " दस घड़े हैं " , " घड़ा सफेद है " , " यहाँ जो सुन्दर दण्डधारी मनुष्य जा रहा है वह मित्र का पुत्र चैत्र है " इत्यादि विशेषण ज्ञानों के स्थलों में भी जो विशेषणादि विषयों के भेद है वह विशिष्टात्मक अभिन्न ज्ञान के आधार पर नहीं है । सामान्य नियम है कि विशेषण जाने बिना " विशेष्य " यह ज्ञान नहीं होता इसलिये यह मान्य है कि विशेषण , विशेष्य और उनका सम्बन्ध तीन ज्ञानों से जानकर बाद में एक विशिष्ट ज्ञान विशिष्ट विषय को सिद्ध करता है । विशेषणादि का भेद विशिष्ट ज्ञान से नहीं , उन तीन ज्ञानों से पता चलता है । जिस प्रक्रिया में विशेषणादा ज्ञानों से अलग विशिष्ट ज्ञान नहीं माना जाता उसमें विशेषणादिविषयक वृत्तिभेद से विषयभेद सिद्ध होता है और " विशिष्टविषयक एक ज्ञान है " यह व्यवहार इसमें उपपन्न होता है कि तीनो वृत्तियाँ एक ही " फल " से - चेतन से - विषय की जाती है और उनके द्वारा तीनो विस भी उससे विषय हो जाते हैं । सर्वथापि ज्ञानभेद ही विषयभेद का उपपादक है । इस प्रकार बोध में भेद की अपेक्षा से ही बोध्य में , विषय में , भेद सिद्ध होता है । बोध में भेद स्वतः है नहीं , वृत्तियों की अपेक्षा से समझा जाता है । अतः जब बोध में ही सत्य भेद नहीं तो विषय में वह कैसे सिद्ध होगा ? ।
हे सौम्य ! इस प्रकार मुनि ने बोधों को स्वप्रकाश मानने पर सच्चिदानन्द आत्मा की सिद्धि राजा को समझायी । अब मुनि कहते हैं कि उन्हें " पर - प्रकाश्य मादे पर भी आत्मा तो ऐसा ही सिद्ध होगा ! यदि भेदज्ञानों को स्वप्रकाश न मानो तो घटादि की तरह उन्हें प्रकाश्य ही मानना पड़ेगा और उनके प्रकाशक को स्वप्रकाश और भेदरहित मानना होगा अन्यथा पूर्ववत् अनवस्था होगी । एवं च सभी बोधों का जो एक आत्मरूप , स्वप्रकाश साक्षी है , जिसका निज स्वरूप ज्ञान है , यह निश्चित हो जाता है । उसी के द्वारा भेदज्ञानों का प्रकाश सम्भव है ।
हे सौम्य ! इसी अभिप्राय से मुनि याज्ञवल्क्य ने राजन् को कहा कि सपने में परमात्मा आत्माज्योति है । वहाँ स्पष्ट ही आत्मा सभी ज्योतियों को प्रकाशित करता है । सूर्य , चन्द्र , अग्नि और शब्द कहलाने वाली ज्योतियाँ जब कार्यकारी नहीं रह जाती तब अकेला आत्मा ही ज्योति रहता है जो कभी अप्रकाशमान नहीं हो सकता ।
नारायण ! श्रुति में आगे प्रश्न उठाया " आत्मा कौन सा है ? और उत्तर दिया" जो यह विज्ञानमय प्राणों में है , हृदय के अन्दर ज्योतिरूप पुरुष है वह आत्मा है । ": इस पर स्पष्ट और विस्तृत अनुग्रह व्याख्यान मुनि द्वारा जो दिया गया है उसे अगले क्रम में प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे : सावशेष ....
नारायण स्मृतिः

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