∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! तो , चलिये अब पुनः विदेहवासी जनक जी द्वारा आयोजित ब्रह्मसभा में जहाँ प्रातःस्मरणीय महर्षि याज्ञवल्क्य के श्रीमुख से हम सब अद्व्य ब्रह्म का आनन्द ले रहे थे।
महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा बताया गया था कि " अज्ञान का फल है ज्ञान को आवृत करना, ढकना , जड़ों में ऐसा कोई आवरण हो नहीं सकता क्योंकि वहाँ कोई ज्ञान है नहीं जो ढाँका जाय । अतः जड में अज्ञान नहीं रहता बल्कि विज्ञानस्वरूप रहता है यह उचित है । लोक में भी यही देखा गया है कि निर्धन व्यक्ति धनी का सहारा लेता है । इसके यह अनुरूप ही है कि दुःखस्वरूप अज्ञान आनन्दस्वरूप ज्ञान का सहारा ले ।
नारायण ! श्रुति में " विज्ञान आनन्द ब्रह्म है " श्रुति ने " विज्ञान आनन्द ब्रह्म है " इस पदसंरचना से सुस्पष्ट किया है कि जो विज्ञान है वही आनन्द है । लोक में भी आनन्द का ऐसा कोई स्वरूप देखा नहीं जाता जो अनुभव से स्वतन्त्र हो , पृथक हो अर्थात् अलग हो। " सूख " या " यह सुख है " ऐसे ज्ञान के बिना आनन्द सत्तासम्पन्न हो नहीं सकता । ज्ञान से असम्बद्ध सुख सर्वथा अप्रसिद्ध होने से निश्चित है कि लौकिक सुख भी आत्मा ही है । वह जो विषय के ढंग से प्रतीत होता है उसमें उपाधिभूत वृत्ति कारण है : वृत्ति के उपधान से आत्मरूप आनन्द लगता है मानो अपने से अलग अभूयमान कोई विषय हो । सुख की तरह दुःख भी विज्ञानरूप आत्मा से अभिन्न हो - यह सम्भावना नहीं क्योंकि सद्- आत्मरूप आत्मा से दुःख अभिन्न है इसमें कोई प्रत्यक्षादि प्रमाण है नहीं ; किसी को ऐसा तो लगता नहीं " मैं दुःख हूँ " ! आनन्द आत्मरूप है , इसमें तो यह श्रुतिवाक्य ही प्रमाण है। अन्य भी अनेक श्रुतियाँ इसे प्रमाणित करती हैं । यद्यपि कहा जाता है कि लोकसिद्ध सुख - दुःख का लाभ और परिपालन एक - सा होता है तथापि इनमें एक निजी खासियत है जिसे मुढ लोग जान नहीं पाते । सभी लोग चाहते हैं " मुझे हमेशा सुख हो " और " यह मुञे कभी न हो " - यों दुःख से सदा द्वेष करते हैं । जिसके बारे में " यह मुझे हमेशा हो " ऐसी इच्छा होती है वह वस्तु अनुकूल तथा " स्व " शब्द से कही - समझी जाती है । " यह होवे " इससे अनुकूलता और " मुझे " इससे " स्व " शब्द के योग्य होना समझे जाते हैं । इससे विपरीत जो प्रतिकूल होता है वह " स्व " शब्द के अयोग्य समझा जाता है । यद्यपि सभी कुछ आत्मा ही है तथापि अविद्यावश किन्हीं पदार्थों में प्रतिकूलतादि प्रतीत होते हैं । लोक में भी सुखरूप से निश्चित पदार्थ यदि शत्रु से सम्बद्ध पता चल जाये तो प्रतिकूल लगने लगता है ; जब अपने से भिन्न का सम्बन्ध ही प्रतिकूलता का आपादक हो जाता है तब जो स्वयं ही पर रूप से कल्पित है वह पदार्थ प्रतिकूल हो इसमें क्या कहना ! तात्पर्य है कि सुख आत्मरूप है , दुःख नहीं- यह विभाजन अज्ञानदृष्टि से है । विज्ञानदृष्टि से तो दुःख है ही नहीं कि वह आत्मरूप हो उसकी सम्भावना उठ सके । सुख के लिये अनुकूल या इष्यमाण होना और " स्व " - शब्द का विषय होना दोनों जरूरी हैं । वैरी का और दुःख का भी हमेशा अपने से सम्बन्ध बताया जाता है - " मेरा वैरी है " " मेरा दुःख है" - तथापि कोई चाहता नहीं कि उनसे अपना सम्बन्ध हो । इसलिये " अपना होना " और " चाहा जाना " दोनों हों तभी सुख हो सकता है।
नारायण ! जिसमें अनुकूलत्व और स्वत्व हो वह सुख है । यहाँ " स्वत्व " से आत्मीय या अपना , आत्मसम्बन्धी , है कह सकते हैं । तब सुख को आत्मरूप कैसे कहा ? आत्मा को आत्मसम्बन्धी मान नहीं सकते क्योंकि सम्बन्ध विभिन्नों में होता है । और यदि स्वत्व से आत्वतत्त्व ही विवक्षित है तो लोग सुख की आकांक्षा " मुझे मिले , मत्सम्बन्धी बने " इस तरह करते है वह संगत नहीं होगा । इन समस्याओं का समाधान किया जा रहा है - सुख आत्मरूप है , इसलिये आत्मा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता जहाँ भेद हो । फिर भी आत्भरूप होने से सुख अजन्य है , जिससे द्वितीयादि के अर्थों से अतिरिक्त सभी अथो। के लिये 6 छठी विभक्ति का प्रयोग संगत होने से उसका प्रयोग कर लिया जाता है कि 6 छठी विभक्ति के सम्बन्धरूप अर्थ की विवक्षा से । उसके प्रयोग से जो यह लगता है कि कोई सम्बन्ध है आत्मा और सुख में , वह भ्रम ही है । उदाहरणार्थ , जब कहा जाता है " खुद ही खुद का उपकार करता है " तब यद्यपि 2 दो " खुद " है नहीं तथापि " खुदका " सुनकर लगता जरूर है कि खुद से सम्बन्ध वाले किसी खुद का प्रसंग है । ऐसे ही " मेरा सुख " में भी " मेरा " यों जो सम्बन्ध सुनाई देता है वह भ्रमवश ही है । " मूझे सुख मिले " यह भी चाहना सुख आत्मा है , इसके अज्ञान से ही होती है । सुख को अपना आत्मा ही बनाने से संतोष होगा । अज्ञान रहते हम सुखरूप आत्मा के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करने वाली वृत्ति द्वारा सुख को अपने से अलग करते हैं और फिर उसका सम्बन्ध पाकर " सुख मेरा है " इस अभिमान से समझ लेते हैं कि जो कुछ हो सकता था वह हो लिया । इसीलिये हमारा असंतोष मिट नहीं पाता ।
नारायण ! इस विचार से निष्कर्ष निकला कि सुख के बाद में कहने के लिये प्रयोग किये " स्व " शब्द का अर्थ कोई आत्मसम्बन्धी पदार्थ नहीं बल्कि आत्मा ही उसका अर्थ है । अतएव सुख - आत्मा नित्य अभिन्न हैं , एक दृष्टि से सुख कहते हैं और अन्य दृष्टि से आत्मा - बस यों शब्दप्रवृत्ति का ही अन्तर है , अर्थभूत वस्तु में अन्तर नहीं । एवं च सुखरूप होने से आत्मा में सभी को निःसीम प्रेम होता है वह उचित ही है । यदि आत्मा का सुख से अनित्य { कादाचित्क } सम्बन्ध होता अर्थात् आत्मा कभी सुखवाला और कभी सुखरहित होता तो सुखरहित आत्मा के प्रति द्वेष भी हुआ करता ! लेकिन ऐसा कभी कहीं देखा जाता नहीं । सुख - आत्मा का यह नित्य सम्बन्ध तादात्म्य ही हो सकता है, समवायादि वैसा नहीं जो सर्वथा विभिन्न में परस्पर होता माना जाता है । " नेति नेति " श्रुतिभगवती ने स्पष्ट किया है कि आत्मा से भिन्न कोई भी वस्तु " है " कहलाने लायक नहीं। अतः वास्तविक भेद की अपेक्षा रखने वाला कोई सम्बन्ध सम्भव ही नहीं । तादात्म्य तो अकल्पित अभेद के रहते कल्पित भेदरूप होता है अतः आत्मा - सुख वस्तुतः एक होने पर भी उनमें कल्पना से भेद प्रतीत होने पर उनका परस्पर सम्बन्ध संगत हो जाता है । जहाँ भी अव्यभिचरित सम्बन्ध निश्चित हो वहाँ अभेद को ही वास्तविक जानना चाहिये , भेदप्रतीति कल्पना से समझनी चाहिये । गुणादि भी द्रव्यादि से वास्तविक भेद वाले पदार्थान्तर नहीं हैं , अतः वहाँ भी तादात्म्य ही है यह रहस्य है ।
नारायण ! जैसे सुख आत्मा से अन्य नहीं , ऐसे ही विज्ञान , अनुभूति , चैतन्य भी आत्मा से अन्य कुछ नहीं है । अलग हो तो भेदमिथ्याबोधक " नेति " आदि श्रुति से विज्ञान भी " है" कहलाने लायक नहीं रह जायेगा । अतः यह ग़लत है जो वैष्णव व्याख्या करते हैं कि जहाँ आत्मा को ज्ञान , सुख आदि कहा है वहाँ " ज्ञान वाला , सुख वाला " आदि मानना चाहिये । विज्ञान आत्मा से पृतक् स्वीकारा जाये तो भले ही उसे आत्मा का असाधारण धर्म मानें फिर भी वह वैसे ही जड होगा जैसे बुद्धिवृत्तिरूप ज्ञान। बुद्धिगत ज्ञान जन्य होने से अनात्मा है ही , आत्मगुणरूप ज्ञान भी आत्मभिन्न होगा तो उसे बुद्धिज्ञान से पृथक् कैसे कहा जा सकेगा ? जो तो आत्मा में जन्य गुण स्वीकारते हैं वे भूल जाते हैं कि आने- जाने वाले धर्म धर्मी को विकृत ही करते हैं , अतः निर्विकार आत्मा में अनित्य गुण नहीं माने जा सकते । घटादि जडों में निश्चित है कि सभी जड अपने निर्वाह के लिये स्वयं से अन्य किसी चेतन की जरूरत रखते हैं । अतः आत्मगुण ज्ञान जड { अनात्मा } मानना हो तब तो पहले ज्ञान ने ही क्या अपराध किया था कि उसे जड { आत्मभिन्न } माना ! इतना ही नहीं ; जो कोई भी परसापेक्ष होता है वह विज्ञान से भी भिन्न ही होता है , यह नियम घट पट आदि सहस्रों स्थलों पर निश्चित है । आत्मगुणरूप ज्ञान भी अगर अपने से भिन्न किसी आत्मा की अपेक्षा रखे , जैसा की गुण होने पर आवश्यक होगा क्योंकि गुण गुणी की अपेक्षा रखता ही है , तो वह ज्ञान ही नहीं रह पायेगा । इसलिये आत्मा ही स्वयम्प्रकाश है , यही युक्तियुक्त सिद्धान्त शास्त्र - अनुभव के अनुसार है । सावशेष ,....
नारायण स्मृतिः
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