!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
█░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█
* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १७ } ~~~
█░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█
नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं - हे ब्रह्मचारी ! श्रुति ने आत्मा को " अन्तर्ज्योति " कहा है , इसका अभिप्राय मुनिवर्य श्री याज्ञवल्क्य राजा को जनक को समझाते हैं :
हे राजन् ! यह आत्मा आनन्दरूप परम पुरुष आत्मदेव " अन्तर्ज्योति " है। श्रुति ने ऐसा कहा है । घटादि वस्तुओं के प्रकाशक को ज्योति कहा जाता है और उनसे अन्य जो पदार्थ तैजस नहीं होते उन्हें " अज्योति " समझा जाता है । आत्मा को " ज्योति " इसलिये श्रुति ने कहा कि वह सबका प्रकाशक है - सूर्यादि ज्योतियों का भी और घटादि अज्योतियों का भी । चेतनरूप होने से वह इस सारे जडवर्ग से विलक्षण है । आत्मा को ज्योति ही नहीं " अन्तर् " भी कहा ; उसमें यह रहस्य है : शरीर से बाहर जो आदित्यादि ज्योतियाँ हैं वह ऐसी वस्तुओं को प्रकाशित करती हैं जिनकी सत्ता उन ज्योतियों की सत्ता से निरपेक्ष होती है । आत्मरूप ज्योति ऐसी नहीं । वह सभी का विवर्तोपादान या अधिष्ठान है , अतः सभी के " भीतर " है । वह जिसे प्रकाशित करता है उसकी सत्ता आत्मसत्ता की अपेक्षा से ही होती है । { अन्य प्रकाश प्रकाश्य से बाहर रहकर उसे प्रकाशित करता है जबकि आत्मप्रकाश प्रकाश्यों के भीतर रहकर उन्हें प्रकाशित करता है वह भाव है । अधिष्ठान को अध्यस्त के " भीतर " इसलिये कहते हैं कि उपादान होता है , अनुस्यूत होता है । } इतना ही नहीं आत्मरूप ज्योति न केवल अन्यों को वरन् खुद को भी प्रकाशित करती है जबकि अन्य ज्योतियाँ ऐसी नहीं , क्योंकि अपनी सिद्धि के लिये उन्हें चित्प्रकाश की जरूरत बनी रहती है । स्वप्रकाश होने से बाहरी ज्योति से निरपेक्ष आत्मा के मानों अन्दर ही ज्योति है , इसलिये भी उसे " ज्योति " ही न कहकर " अन्तर्ज्योति " कहा। श्रुति ने जो आत्मा को " अन्तर्ज्योति " कहा उसका यही अभिप्राय है ।
हे राजन् ! श्रुति ने आत्मा को " पुरुष " भी कहा , उसका अर्थ भी बता देते हैं : इस प्रकाशमान आत्मा को श्रुति ने " पुरुष " इसलिये कहा कि इस ज्योति से ही चराचर जगत् पूरा है । { मरकत मणि की परीक्षा बतायी जाती है कि शुद्ध गाय के दूध में उसे डालें तो सारा दूध मणि के रंग का दीखने लगता है । वहाँ वस्तुतः न मणि बिखरती है , न दूध बिगड़ता है , केवल वैसी प्रतीति होती है । इसी तरह जगत् आत्मा से ही सत्ता - स्फूर्ति वाला भास रहा है । भले ही वास्तव में आत्मा - जगत् का सम्बन्ध न हो पर संसार में सर्वत्र सत्ता - स्फूर्ति मिलती है , अतः वह आत्मा से ही " पूर्ण" हो रहा है । } यों आत्मा इसलिये " पुरुष " है कि जैसे पक्षी घोंसले बनाकर उनमें रहता है ऐसे ही आत्मा स्थावर - जंगम नाना प्रकार के पुर अर्थात् शरीर बनाकर उसमें " अध्यासरूप " सम्बन्ध से निवास करता है ।
हे सोम्य ! आगे मुनि कहते हैं कि " हे राजन् ! " श्रुति यह भी कह भी कहती है कि आत्मा समान रहते हुए दोनों लोकों में संचरण करता है ; वह मानो ध्यान करता है और मानो लीला करता है । वह स्वप्नावस्था पाकर इस जाग्रत् - लोक से परे हो जाता है । शरीरादि ही मृत्यु के रूप हैं क्योंकि ये ही उसे निरूपित करते हैं । सपने में पहुँचने पर आत्मा जाग्रत् के इन मृत्यु - रूपों से भी बच जाता है । अब इसे समझायेंगे । ध्यान से सुनना :
हे राजन् ! विज्ञानमय आदि से रूप से जिसका वर्णन किया वह पुरुष अद्वितीय रहते हुए ही स्वप्न और जाग्रत् में एकरूप रहकर जैसे सुख - दुःख भोगता है वैसे ही इस लोक और परलोक में भी भोगता है । यह जन्म लेता है , मरता है और मरकर पुनः जन्म लेता है ! रेंहट { किसान के खेत में पानी पटाने का एक साधन } की तरह यह हमेशा चलता ही रहता है । कर्म के फाँस यह आत्मा बार - बार अनेक शरीर ग्रहण करता है व छोड़ता है । है यह ईश्वर लेकिन अज्ञानवश यह संसरण करता रहता है ।
यद्यपि यह पुरुष पूर्ण है , न आता है न जाता है , न करता है न भोगता है , सभी विकारों से रहित है ; तथापि इस आत्मा को क्योंकि अपने सत्य स्वरूप का अज्ञान है इसलिये यह अन्तःकरण से स्वयं को एकमेक समझ लेता है , जिससे इसे फलों सहित कर्मों की प्राप्ति हो जाती है । { अर्थात् मनोध्यासद्वारा कर्तृताध्यास और उससे भोक्तृताध्यास हो जाता है।} आकाश वस्तुतः कभी गर्म { या ठंढा } नहीं होता लेकिन गर्म पानी में मौजूद आकाश लगता है मानों गर्म हो । ऐसे ही यह आत्मा वास्तव में परमेश्वर है , लेकिन अविद्या के प्रभाव से इसने बुद्धि से तादात्म्याध्यास कर लिया है जिसके कारण यह कर्मों का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता बनता रहता है । यह इसी से सिद्ध है कि बुद्धि ध्यान करती है तब आत्मा ध्यान करता हुआ सा लगता है और वह चंचल होती है तो यह भी चंचल हुआ - सा लगता है । जैसे कामिनी का अनुसरण करता कामुक उसके बैठने पर बैठता है, वह चल देती है तो पीछे - पीछे चलने लगता है क्योंकि उस पर मुग्ध होता है , इसी तरह बुद्धि पर मुग्ध आत्मा बुद्धि का अनुशरण करता है । { इस बात को मेरे सत्संगी मित्र श्री Sanjay Tiwari जी विशेष रूप से ध्यान देंगे । }
हे राजन् ! बुद्धि से एकमेक हुआ वह स्वप्रकाश आत्मदेव जब स्वप्न अर्थात् "तैजस" नाम वाला हो जाता है तब स्वयं द्वारा निर्मित इन्द्रजालतुल्य विविध सपने देखता है । उस समय यह बिना मुश्किल के इस जाग्रदवस्था वाले संसार को लाँध जाता है जैसे कोई महाराजा नाव { नदी आदि पार करने का साधन } द्वारा अत्यन्त गहरी नदी पार कर गया हो । नाव की जगह यहाँ बुद्धि ही है। जाग्रत् संसार में अध्यात्मदृष्टि से सबसे प्रधान है स्थूल शरीर । ग्रह - अतिग्रह कहलाने वाले इन्द्रिय और विषय भी जाग्रत् संसार को घोर बनाये हुए हैं । यह प्रपञ्च नाना तरह फैला है { अधिदेव , अधिभूत आदि ; भूत , भविष्य आदि ; आमुष्मिक अर्थात् दूसरे लोक से सम्बन्ध रखने वाला आदि ; आर्थाक , सामाजिक आदि } । अविध्यात्मक मृत्यु का यह रूप अर्थात् कार्य है । { यद्यपि स्वप्न भी ऐसा ही है तथापि वह कार्योपाधि के व्यवधान से है । } पानी के बुलबुले की तरह यह हमेशा नष्ट होते रहता है । बीमारी आदि से भरा - पूरा होने से यह दुःख का कारण बना रहता है । ऐसे जाग्रल्लोक को बड़े आराम से आत्मा छोड़ देता है जब सपने में पहुँच जाता है । { श्रुति ने " स्वप्नो भूत्वा कहा जो वैसे ही संगत है जैसे " बालक होकर , युवक होकर " इत्यादि , क्योंकि आत्मा जिस अवस्था को प्राप्त करता है उस नाम को भी ग्रहण कर लेता है ।
हे नरेश ! सपने में भोग देने वाले कर्म समाप्त होने पर जाग्रत् में भोग प्रदान करने वाले कर्म स्वप्न देखने वाले आत्मा को जगा देते हैं । माँ के गर्भ से पैदा होते हुए जैसे आत्मा स्थूल शरीर में अभिमान करता है , वैसे ही सपने से जगते हुए भी । तभी वह नानाविध पापों से अर्थात् दुःखों से युक्त हो जाता है । सपने से आये हुए पुरुष को जाग्रत् में जो दुःख प्राप्त होते हैं उन क्या वर्णन किया जाये ! वे तो सभी को अपरोक्ष हैं । जब तक यह परम पुरुष स्थूल देह में तादात्म्याध्यास को छोड़ता नहीं तब तक अनन्त दुःख पाता है । इस शरीर से जब वह उत्क्रमण करता है - चाहे स्वप्न आदि अवस्थाओं में जाये या मर जाये - तब वह क्षणभर में ही दुःखहेतुभूत बहुतेरे पापों को और बहुत से दुःखों को छोड़ देता है । { बहुत सारे पाप इकट्ठे होकर पुरुष को दुःख देते हैं । इतने सारे होने पर भी देहोत्क्रमण करने से पुरुष इनकी पहुँच से दूर हो जाता है । यद्यपि कर्मफल तो भोगना ही पड़ता है तथापि तात्पर्य है कि फलभोग के लिये देहतादात्म्य अनिवार्य है क्योंकि देहे ही " भोगायतन " है । अतः देहाध्यान मिट जाये तो कर्म - फल से छूटना अर्थसिद्ध है। } किसी देश में अराजकता आदि से बहुत उपद्रव हो रहे हों और उस देश से मोह होने के कारण- " यह मेरी जन्मभूमि है " इत्यादि अभिमानवश उस स्थान की हेयता न स्वीकारने के कारण - कोई व्यक्ति वहीं बसा रहे तो दिन - रात उसे उपद्रवों का व दुःखों का सामना करना पड़ता है । ऐसे ही परमात्मा प्रबल मोह से ग्रस्त हुआ शरीर में बस गया है , अतः बहुतेरे कारणों से होने वाले विविध दुःख पा रहा है । जो बुद्धिमान् व्यक्ति उपद्रवयुक्त देश से अन्यत्र शान्त सम्पन्न देश में चला जाता है वह उस सोपद्रव देश के दुःख नहीं पाता । ऐसे ही जब आत्मदेव इस देह से निकल जाता है तो इस देह के कारण होने वाले सभी दुःखों को और उनके हेतुओं को { सर्दी - गर्मी आदि की } कभी नहीं प्राप्त करता । { तात्पर्य है कि जब मृत्यु होने या सोने पर ही शरीर - प्रयुक्त दुःख छूट जाते हैं तब अध्यास मिटने पर क्या कहना ! व्यवहारदृष्टि से याद रखना चाहिये कि जागरण में अनुभव किये जाने वाले कर्म न रहने पर ही सोना सम्भव होता है और इस शरीर में भोगे जाने वाले कर्म समाप्त होने पर ही मरना सम्भव होता है। ऐसा नहीं कि जैसे देश से भाग जायें तो वहाँ के दुःखों से बच जाते हैं वैसे सोया या मरा जा सके । अथवा देश से भागने की जगह प्रकृत में समाधि का अभ्यास , भूमिकारोहरण समझ सकते हैं और वहीं रहकर दुःख से बचने की जगह है बिना भूमिकारोहण के जीवन्मुक्ति । } सावशेष ......
█░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█
* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १७ } ~~~
█░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█
नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं - हे ब्रह्मचारी ! श्रुति ने आत्मा को " अन्तर्ज्योति " कहा है , इसका अभिप्राय मुनिवर्य श्री याज्ञवल्क्य राजा को जनक को समझाते हैं :
हे राजन् ! यह आत्मा आनन्दरूप परम पुरुष आत्मदेव " अन्तर्ज्योति " है। श्रुति ने ऐसा कहा है । घटादि वस्तुओं के प्रकाशक को ज्योति कहा जाता है और उनसे अन्य जो पदार्थ तैजस नहीं होते उन्हें " अज्योति " समझा जाता है । आत्मा को " ज्योति " इसलिये श्रुति ने कहा कि वह सबका प्रकाशक है - सूर्यादि ज्योतियों का भी और घटादि अज्योतियों का भी । चेतनरूप होने से वह इस सारे जडवर्ग से विलक्षण है । आत्मा को ज्योति ही नहीं " अन्तर् " भी कहा ; उसमें यह रहस्य है : शरीर से बाहर जो आदित्यादि ज्योतियाँ हैं वह ऐसी वस्तुओं को प्रकाशित करती हैं जिनकी सत्ता उन ज्योतियों की सत्ता से निरपेक्ष होती है । आत्मरूप ज्योति ऐसी नहीं । वह सभी का विवर्तोपादान या अधिष्ठान है , अतः सभी के " भीतर " है । वह जिसे प्रकाशित करता है उसकी सत्ता आत्मसत्ता की अपेक्षा से ही होती है । { अन्य प्रकाश प्रकाश्य से बाहर रहकर उसे प्रकाशित करता है जबकि आत्मप्रकाश प्रकाश्यों के भीतर रहकर उन्हें प्रकाशित करता है वह भाव है । अधिष्ठान को अध्यस्त के " भीतर " इसलिये कहते हैं कि उपादान होता है , अनुस्यूत होता है । } इतना ही नहीं आत्मरूप ज्योति न केवल अन्यों को वरन् खुद को भी प्रकाशित करती है जबकि अन्य ज्योतियाँ ऐसी नहीं , क्योंकि अपनी सिद्धि के लिये उन्हें चित्प्रकाश की जरूरत बनी रहती है । स्वप्रकाश होने से बाहरी ज्योति से निरपेक्ष आत्मा के मानों अन्दर ही ज्योति है , इसलिये भी उसे " ज्योति " ही न कहकर " अन्तर्ज्योति " कहा। श्रुति ने जो आत्मा को " अन्तर्ज्योति " कहा उसका यही अभिप्राय है ।
हे राजन् ! श्रुति ने आत्मा को " पुरुष " भी कहा , उसका अर्थ भी बता देते हैं : इस प्रकाशमान आत्मा को श्रुति ने " पुरुष " इसलिये कहा कि इस ज्योति से ही चराचर जगत् पूरा है । { मरकत मणि की परीक्षा बतायी जाती है कि शुद्ध गाय के दूध में उसे डालें तो सारा दूध मणि के रंग का दीखने लगता है । वहाँ वस्तुतः न मणि बिखरती है , न दूध बिगड़ता है , केवल वैसी प्रतीति होती है । इसी तरह जगत् आत्मा से ही सत्ता - स्फूर्ति वाला भास रहा है । भले ही वास्तव में आत्मा - जगत् का सम्बन्ध न हो पर संसार में सर्वत्र सत्ता - स्फूर्ति मिलती है , अतः वह आत्मा से ही " पूर्ण" हो रहा है । } यों आत्मा इसलिये " पुरुष " है कि जैसे पक्षी घोंसले बनाकर उनमें रहता है ऐसे ही आत्मा स्थावर - जंगम नाना प्रकार के पुर अर्थात् शरीर बनाकर उसमें " अध्यासरूप " सम्बन्ध से निवास करता है ।
हे सोम्य ! आगे मुनि कहते हैं कि " हे राजन् ! " श्रुति यह भी कह भी कहती है कि आत्मा समान रहते हुए दोनों लोकों में संचरण करता है ; वह मानो ध्यान करता है और मानो लीला करता है । वह स्वप्नावस्था पाकर इस जाग्रत् - लोक से परे हो जाता है । शरीरादि ही मृत्यु के रूप हैं क्योंकि ये ही उसे निरूपित करते हैं । सपने में पहुँचने पर आत्मा जाग्रत् के इन मृत्यु - रूपों से भी बच जाता है । अब इसे समझायेंगे । ध्यान से सुनना :
हे राजन् ! विज्ञानमय आदि से रूप से जिसका वर्णन किया वह पुरुष अद्वितीय रहते हुए ही स्वप्न और जाग्रत् में एकरूप रहकर जैसे सुख - दुःख भोगता है वैसे ही इस लोक और परलोक में भी भोगता है । यह जन्म लेता है , मरता है और मरकर पुनः जन्म लेता है ! रेंहट { किसान के खेत में पानी पटाने का एक साधन } की तरह यह हमेशा चलता ही रहता है । कर्म के फाँस यह आत्मा बार - बार अनेक शरीर ग्रहण करता है व छोड़ता है । है यह ईश्वर लेकिन अज्ञानवश यह संसरण करता रहता है ।
यद्यपि यह पुरुष पूर्ण है , न आता है न जाता है , न करता है न भोगता है , सभी विकारों से रहित है ; तथापि इस आत्मा को क्योंकि अपने सत्य स्वरूप का अज्ञान है इसलिये यह अन्तःकरण से स्वयं को एकमेक समझ लेता है , जिससे इसे फलों सहित कर्मों की प्राप्ति हो जाती है । { अर्थात् मनोध्यासद्वारा कर्तृताध्यास और उससे भोक्तृताध्यास हो जाता है।} आकाश वस्तुतः कभी गर्म { या ठंढा } नहीं होता लेकिन गर्म पानी में मौजूद आकाश लगता है मानों गर्म हो । ऐसे ही यह आत्मा वास्तव में परमेश्वर है , लेकिन अविद्या के प्रभाव से इसने बुद्धि से तादात्म्याध्यास कर लिया है जिसके कारण यह कर्मों का कर्ता और उनके फलों का भोक्ता बनता रहता है । यह इसी से सिद्ध है कि बुद्धि ध्यान करती है तब आत्मा ध्यान करता हुआ सा लगता है और वह चंचल होती है तो यह भी चंचल हुआ - सा लगता है । जैसे कामिनी का अनुसरण करता कामुक उसके बैठने पर बैठता है, वह चल देती है तो पीछे - पीछे चलने लगता है क्योंकि उस पर मुग्ध होता है , इसी तरह बुद्धि पर मुग्ध आत्मा बुद्धि का अनुशरण करता है । { इस बात को मेरे सत्संगी मित्र श्री Sanjay Tiwari जी विशेष रूप से ध्यान देंगे । }
हे राजन् ! बुद्धि से एकमेक हुआ वह स्वप्रकाश आत्मदेव जब स्वप्न अर्थात् "तैजस" नाम वाला हो जाता है तब स्वयं द्वारा निर्मित इन्द्रजालतुल्य विविध सपने देखता है । उस समय यह बिना मुश्किल के इस जाग्रदवस्था वाले संसार को लाँध जाता है जैसे कोई महाराजा नाव { नदी आदि पार करने का साधन } द्वारा अत्यन्त गहरी नदी पार कर गया हो । नाव की जगह यहाँ बुद्धि ही है। जाग्रत् संसार में अध्यात्मदृष्टि से सबसे प्रधान है स्थूल शरीर । ग्रह - अतिग्रह कहलाने वाले इन्द्रिय और विषय भी जाग्रत् संसार को घोर बनाये हुए हैं । यह प्रपञ्च नाना तरह फैला है { अधिदेव , अधिभूत आदि ; भूत , भविष्य आदि ; आमुष्मिक अर्थात् दूसरे लोक से सम्बन्ध रखने वाला आदि ; आर्थाक , सामाजिक आदि } । अविध्यात्मक मृत्यु का यह रूप अर्थात् कार्य है । { यद्यपि स्वप्न भी ऐसा ही है तथापि वह कार्योपाधि के व्यवधान से है । } पानी के बुलबुले की तरह यह हमेशा नष्ट होते रहता है । बीमारी आदि से भरा - पूरा होने से यह दुःख का कारण बना रहता है । ऐसे जाग्रल्लोक को बड़े आराम से आत्मा छोड़ देता है जब सपने में पहुँच जाता है । { श्रुति ने " स्वप्नो भूत्वा कहा जो वैसे ही संगत है जैसे " बालक होकर , युवक होकर " इत्यादि , क्योंकि आत्मा जिस अवस्था को प्राप्त करता है उस नाम को भी ग्रहण कर लेता है ।
हे नरेश ! सपने में भोग देने वाले कर्म समाप्त होने पर जाग्रत् में भोग प्रदान करने वाले कर्म स्वप्न देखने वाले आत्मा को जगा देते हैं । माँ के गर्भ से पैदा होते हुए जैसे आत्मा स्थूल शरीर में अभिमान करता है , वैसे ही सपने से जगते हुए भी । तभी वह नानाविध पापों से अर्थात् दुःखों से युक्त हो जाता है । सपने से आये हुए पुरुष को जाग्रत् में जो दुःख प्राप्त होते हैं उन क्या वर्णन किया जाये ! वे तो सभी को अपरोक्ष हैं । जब तक यह परम पुरुष स्थूल देह में तादात्म्याध्यास को छोड़ता नहीं तब तक अनन्त दुःख पाता है । इस शरीर से जब वह उत्क्रमण करता है - चाहे स्वप्न आदि अवस्थाओं में जाये या मर जाये - तब वह क्षणभर में ही दुःखहेतुभूत बहुतेरे पापों को और बहुत से दुःखों को छोड़ देता है । { बहुत सारे पाप इकट्ठे होकर पुरुष को दुःख देते हैं । इतने सारे होने पर भी देहोत्क्रमण करने से पुरुष इनकी पहुँच से दूर हो जाता है । यद्यपि कर्मफल तो भोगना ही पड़ता है तथापि तात्पर्य है कि फलभोग के लिये देहतादात्म्य अनिवार्य है क्योंकि देहे ही " भोगायतन " है । अतः देहाध्यान मिट जाये तो कर्म - फल से छूटना अर्थसिद्ध है। } किसी देश में अराजकता आदि से बहुत उपद्रव हो रहे हों और उस देश से मोह होने के कारण- " यह मेरी जन्मभूमि है " इत्यादि अभिमानवश उस स्थान की हेयता न स्वीकारने के कारण - कोई व्यक्ति वहीं बसा रहे तो दिन - रात उसे उपद्रवों का व दुःखों का सामना करना पड़ता है । ऐसे ही परमात्मा प्रबल मोह से ग्रस्त हुआ शरीर में बस गया है , अतः बहुतेरे कारणों से होने वाले विविध दुःख पा रहा है । जो बुद्धिमान् व्यक्ति उपद्रवयुक्त देश से अन्यत्र शान्त सम्पन्न देश में चला जाता है वह उस सोपद्रव देश के दुःख नहीं पाता । ऐसे ही जब आत्मदेव इस देह से निकल जाता है तो इस देह के कारण होने वाले सभी दुःखों को और उनके हेतुओं को { सर्दी - गर्मी आदि की } कभी नहीं प्राप्त करता । { तात्पर्य है कि जब मृत्यु होने या सोने पर ही शरीर - प्रयुक्त दुःख छूट जाते हैं तब अध्यास मिटने पर क्या कहना ! व्यवहारदृष्टि से याद रखना चाहिये कि जागरण में अनुभव किये जाने वाले कर्म न रहने पर ही सोना सम्भव होता है और इस शरीर में भोगे जाने वाले कर्म समाप्त होने पर ही मरना सम्भव होता है। ऐसा नहीं कि जैसे देश से भाग जायें तो वहाँ के दुःखों से बच जाते हैं वैसे सोया या मरा जा सके । अथवा देश से भागने की जगह प्रकृत में समाधि का अभ्यास , भूमिकारोहरण समझ सकते हैं और वहीं रहकर दुःख से बचने की जगह है बिना भूमिकारोहण के जीवन्मुक्ति । } सावशेष ......
Comments
Post a Comment