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: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १४ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १४ } ~~~
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नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं कि " हे सौम्य ! " अब महर्षि याज्ञवल्क्यक राजा जनक के सामने ज्ञानों की परीक्षा करेंगे क्योंकि ज्ञान यदि स्वप्रकाश यदि सिद्ध हुए तो वे ही श्रुतिप्रसिद्ध आत्मा होंगे और यदि वे अन्य द्वारा प्रकाशित होने वाले होंगे तो उनका प्रकाशक आत्मा निश्चित हो जायेगा । इसी अभिप्राय से बोध के बारे में अब मुनि विचार करते हुए राजा से कहते हैं –
हे राजन् ! ज्ञान यदि स्वयंप्रकाश हैं तो उनमें भेद कैसे ? { घटादिविषयक ज्ञान या वृत्तिरूप माने जायेंगे तो परप्रकाश्य होंगे और या चिद्रूप होने से स्वयं प्रकाश होंगे । जिस पक्ष में वे स्वयं प्रकाश हैं तब प्रश्न होगा कि ज्ञानों का आपसी भेद कैसे सिद्ध होता है - क्या खुद से सिद्ध होता है या किसी अन्य से ? खुद भेद तो स्वयं को सिद्ध करेगा नहीं क्योंकि जड है । यदि जिसमें भेद है वह ज्ञान ही उस भेद को सिद्ध करने वाला मादा चाहो तो भी बनेगा नहीं : भेदज्ञान के लिये ज़रूरी है प्रतियोगी और अनुयोगी का ज्ञान अर्थात् जिसमें भेद जानना हो उन दोनों की जानकारी होने पर ही भेद का ज्ञान हो सकता है । एक ज्ञान का अन्य ज्ञान से भेद जानने के लिये दोनों ज्ञानों का ज्ञान अपेक्षित होगा किन्तु स्वप्रकाश मानने पर ज्ञान का ज्ञान होगा ही नहीं तो भेदज्ञान कैसे हो पायेगा ? इस प्रकार यदि ज्ञान स्वप्रकाश है तो उसमें भेद नहीं सिद्ध होगा , एक अखण्ड अद्वितीय ज्ञान ही निश्चित होगा । } यदि कहो कि ज्ञान स्वप्रकाश हैं पर उनका भेद खुद से नहीं अन्य से सिद्ध होता है तो बताओ कि भिन्न होने वाले ज्ञान से अन्य जो तुम हो वह तुम उस भेद को विषय करते हो या नहीं ? यदि कहो " हाँ , करते है । " तो बताओ कि क्या सिर्फ " भेद " इतना ही ग्रहण करते हो या " इन बोधों का परस्पर भेद है " यों प्रतियोगी - अनुयोगी सहित भेद का ग्रहण करते हो ? अगर " भेद " बस इतना ही जानते हो तो बोधों में भेद नहीं सिद्ध हुआ ! जब तक ज्ञानों को भेद का अनुयोगी - प्रतियोगी न समझा जाये तब तक उन्हें भेद वाला कैसे कहोगे ? केवल " भेद " इतना ही जानने से यह तो सिद्ध नहीं होगा कि ज्ञान भिन्न हैं । " भेद " यों ज्ञान होने पर भी आकाश आकाश से भिन्न नहीं हो जाता क्योंकि आकाश का उस भेद के प्रतियोगी - अनुयोगी रूप से उल्लेख हुआ नहीं । ऐसे ही उक्त ढंग से अनुल्लिखित बोध में भिन्नता सिद्ध नहीं हो पायेगी । इसलिये ज्ञानों में भेद सिद्ध करने के लिये कहना होगा कि कि तुम्हें बुद्धि से यों ग्रहण होता है " इन ज्ञानों में परस्पर भेद हैं " । इसके लिये ज़रूरी है कि तुम्हें ज्ञान " इदंरूप " से प्रतीत हुए हैं लेकिन तब ज्ञानों को वैसे ही स्वप्रकाश नहीं मान सकते जैसे घड़े आदि को नहीं मानते । तुम्हें अनुभव है " मेरे द्वारा घड़े - कपड़े का भेद ग्रहण किया जा रहा है " तो भेदनिरूपक बनने वाले घड़े आदि स्वप्रकाश नहीं हैं । ऐसे ही यदि भेदनिरूपक होकर ज्ञान प्रतीत होंगे तो वे भी स्वप्रकाश माने जायें यह सम्भव नहीं होगा । यदि कहते हो कि स्वप्रकाश ज्ञानों में तुम्हें भेद का ग्रहण होता नहीं तब तो भेद सिद्ध ही नहीं होगा क्योंकि ग्रहण न होना पर्याप्त कारण है वस्तु का न होना सिद्ध करने में । यदि अगृहित चीज़ों की भी सत्ता हो तो पुरुष के सिर पर सींग क्यों नहीं हो जाते । किं च ज्ञानों के भेद का ग्रहण होता है ऐसा मानने पर प्रश्न होगा कि वह ग्रहण परप्रकाश है कि स्वप्रकाश ? परप्रकाश कहो तो अनवस्था का मार्ग प्रशस्त होगा ही । और यदि तुम्हारे हिसाब से वह भेदग्रहण हो तो समस्या होगी कि वह प्रतियोगी - अनुयोगी बोधों को ग्रहण कर नहीं पायेगा क्योंकि उन बोधों की तरह वह भी प्रकाशरूप होगा तो जैसे सूर्य चन्द्रमा को ग्रहण नहीं करता ऐसे भेदज्ञान भी भिन्न ज्ञानों कों ग्रहण करेगा नहीं और तब भेद भी सिद्ध नहीं होगा क्योंकि प्रतियोगी आदि ग्रहण किये बिना यह सिद्ध हुआ नहीं करता ।
हे राजन् ! एक स्वप्रकाश अपर स्वप्रकाश को ग्रहण करे यह संगत है ही नहीं । सभी ज्ञानों को स्वप्रकाश मानकर भी उन्हें एक - दूसरे को प्रकाशित करने वाला कहोगे तो स्वीकारना पड़ेगा कि उसमें कोई तारत्म्यरूप भेद है जिससे प्रकाश्यता - प्रकाशकता की व्यवस्था बनी रहती है । किन्तु तारत्म्य मानकर प्रकाश्यता कहते ही ज्ञान भी घटादि के तुल्य हो जायेंगे , वे स्वप्रकाश नहीं रह सकेंगे । और यदि पूर्वोक्त ढंग से ज्ञानों में भेद न कहो- कोई ऐसी खासियत न बताओ जो निर्धारित करे कि कौन किसका प्रकाश्य बनेगा - तो ज्ञान समान होंगे जिससे यह नहीं सिद्ध होगा कि वे परस्पर प्रकाश्य हैं । संसार में कहीं नहीं देखा जाता कि समान पदार्थों में प्रकाश्य - प्रकाशकभाव हो । जुगुनू और दीपज्वाला भी एक - दूसरे को प्रकाशित करते नहीं । अतः एक स्वप्रकाश को अन्य स्वप्रकाश का साधक मानना सम्भव नहीं ।
हे सौम्य ! मुनि को प्रसंगानुसार ज्ञान को सत् - चिद् - आनन्द बताना है।
हे सौम्य ! मुनि के पूर्वोक्त विचार से निकालते हैं कि ज्ञान सुखरूप है - 1 इस प्रकार भेद का ग्रहण असम्भव है तो मनुष्य के सींग की तरह भेद भी सिद्ध नहीं होगा जिससे बोधों को भेदरहित मानना अनिवार्य है । ऐसे में यह भी निश्चय कर लेना चाहिये कि वे ज्ञान सुखात्मक भी हैं क्योंकि श्रुतिभगवती ने बताया है कि जो भेदशून्य होता है वही सुख होता है । इतना ही नहीं , सुषुप्ति व समाधि में जब भेद नहीं होता तो लोगों को किसी दुःख का भी अनुभव नहीं होता । अतः भेद व दुःख का सम्बन्ध है , भेद न होने पर आनन्द ही रहता है । भले ही सुषुप्ति आदि में भेदराहित्य सुख हो पर वह ज्ञानरूप है यह कैसे समझें ?
हे सौम्य ! मुनि राजन् को बताते हैं - स्वप्रकावरूप से सिद्ध किये ज्ञान यदि सुखात्मक न हों तो लोगों को सुषुप्ति आदि में सुखानुभव भी वैसे ही नहीं हो सकता जैसे दुःखनुभव नहीं होता , किन्तु सुखानुभव होता है अतः सिद्ध हो जाता है कि वह सुख स्वप्रकाश ज्ञानरूप ही है । एवं च स्वप्रकाश ज्ञानों को अभिन्न और सुखरूप मानना जरूरी है ।
मुनि कहते हैं कि " हे राजन् ! " केवल सुख को ही नहीं , दुःखाभाव को भी अप्रकाशरूप - अर्थात् ज्ञान से अत्यन्त भिन्न - मानना किसी तरह युक्तियुक्त नहीं । दुःखाभाव यदि ज्ञान से भिन्न हो तो सुषुप्ति में उसका { दुःखराहित्य का } पता केसे चलेगा ? ज्ञान से दो का ही भान होता है - एक स्वयं ज्ञान का और दूसरा जो ज्ञान से तादात्म्य को प्राप्त हो जाये । ज्ञान से अत्यन्त भिन्न वस्तु का भान ज्ञान से होता नहीं । ज्ञान भेदशून्य सिद्ध हो चुके हैं और दुःखभाव को तुम भेद वाला मान रहे हो । ऐसे में उसका भान सम्भव नहीं होगा जबकि " दुःख नहीं था " ऐसी स्मृति होती है जिससे पता लगता है कि सुप्ति आदि में दुःखाभाव था । बोध भावरूप हैं तो वे ही दुःखाभावरूप भी कैसे कहे जा रहे हैं ? इसका उत्तर देते हैं - अभाव भी भावों से अत्यन्त भिन्न होकर संसार में कहीं नहीं रहता। इसीलिये विद्वानों ने माना है कि घट , अपने से भिन्न सब चीज़ों का अभावरूप भी है । { अभाव जिस पर प्रतीत होता है उसका अधिकरण या अनुपयोगी कहलाता है जैसे भूतल पर घटाभाव प्रतीत हो तो भूतल घटाभाव का अनुयोगी होगा । किन्तु विचार करें तो उस भूतल से अतिरिक्त वहाँ घटाभाव कोई स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध नहीं होता ! किसी दृष्टि से , अपेक्षा से , भूतल को ही घटाभाव भी समझ लिया जाता है । इसलिये एक भावपदार्थ का अभाव अन्य भावपदार्थ ही होता है , भावविलक्षण अभाव का निरूपण करना सम्भव नहीं । उक्त ढंग से यदि सारा संसार अभावरूप सिद्ध हो तो हुआ करे , अद्वितीय आत्मा स्वीकारने वाले हम औपनिषदों की क्या हानि है !
मुनि कहते हैं कि प्रश्न होगा कि अभाव को अनुयोगिरूप मानने वालों का अनुसरण करने से अद्वैत नहीं सिद्ध होगा क्योंकि वे लोग पदार्थों को स्वरूपतः भिन्न मानते हैं । सावशेष .....
{ इस प्रश्न का उत्तर मुनि देंगे जिसे अगले क्रम में प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे । }
नारायण स्मृतिः

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