Skip to main content

: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
█░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█
* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { २० } ~~~
█░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█
नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजन ! " ध्यानपूर्वक सुनना: वादि यदि चेतन मन की वह आत्मता मानता है जिसका हम विचार कर रहे हैं तो विचारणीय है कि उस वादि के अनुसार मन परिच्छिन्न है या व्यापक ? यदि परिच्छिन्न हो तो उससे अपंचीकृत महाभूत और खाये हुए अन्न की याद आयेगी ! { तात्पर्य है कि जो परिच्छिन्न है वह कार्य होता है और कार्य अपने कारण को याद दिलाता है। मन का कारण सूक्ष्म भूत और अन्न का सूक्ष्मांश है वह अन्नमय कहलाता है । यों जड का कार्य होने पर वह चेतन और आत्मा माना जाये यह गलत है । } परिच्छिन्न न मानकर यदि वादी कहे कि मन किसी देश - काल - वस्तु में नहीं है अर्थात् विभु है , अतः तीनों परिच्छेदों से रहित है; तब तो वह मन ही नहीं होगा वरन् विज्ञान - आनन्दरूप वाला यह स्वप्रकाश आत्मा ही होगा । इस त्रिलोकी में मन उसे कहते हैं जो तैजस अर्थात् सत्त्वप्रधान अन्तःकरण सैकड़ों संकल्पों के प्रति कारण बनता है । अपरिच्छिन्न पदार्थ को मन कहकर आपने ऐसी वस्तु तो कही नहीं , केवल " मन " का ही नाम लिया , अर्थ उसका आत्मा को बता दिया । कहीं कभी किसी विचारशील को नाम के बारे में विवाद नहीं होता । जिसे हम आत्मा कहते हैं उसे आप मन कह रहे हैं । स्वप्रकाशस्वरूप ज्ञान वाणी व मन की पहुँच से बाहर है , अतः इस परमात्मा के बारे में आत्मा आदि नाम भी मुख्य वृत्ति से प्रवृत्त नहीं होते । आत्मविचार में कुशल अन्य लोग जैसे आत्मा आदि विभिन्न नामों का आरोप करते हैं वैसे आप " मन " इस एक नाम का यहाँ और अध्यास कह रहे हैं । इस प्रकार स्वप्न में लोकप्रसिद्ध मन को आप भी ज्योति नहीं मान रहे । अविद्या और जाग्रत् प्रपञ्च वहाँ ज्योति नहीं यह कह ही चुके हैं । अतः बचा हुआ आत्मा ही वहाँ ज्योति है यह निर्धारित होता है । आत्मा की प्रतीति वहाँ होती है , आत्मा से अन्य कोई वहाँ प्रतीति कराने वाला है नहीं , इसलिये वहाँ यह आत्मा स्वयं ज्योति है यह स्पष्ट है ।
हे राजन् ! स्वप्रकाश ज्ञान को आत्मा से भिन्न - उसका धर्म , गुण - मानना किसी तरह संगत नहीं बैठता है । आत्मा में भेद होगा तो परिच्छिनता भी होगी और परिच्छिन्नता होगी तो वह अनात्मा ही होगा । परिच्छिन्न होने से जैसे घट अनात्मा है , ऐसे ही यदि परिच्छिन्न होंगे तो ज्ञान व भी अनात्मा ही होंगे । इसलिये ज्ञान और आत्मा में भेद नहीं स्वीकारा जा सकता । ज्ञान से भेद न होने के कारण यह पुरुष अर्थात् आत्मा स्वयं ही प्रकाशरूप अर्थात् ज्ञानरूप है । यद्यपि यों तर्क से आत्मा की स्वप्रकाशता पता चल जाती है तथापि स्वप्न के विचार से अन्वय - व्यक्तिरेक द्वारा यह तथ्य सिद्ध होकर आराम से समझ आ जाता है इस तात्पर्य से यहाँ श्रुति " स्वयंज्योति " बताया है । { अन्श - व्यतिरेक इस तरह है : आत्मा और भान का अन्वय है क्योंकि भान ज्ञाग्रत् व स्वप्न में है और आत्मा भी दोनों में है । भासकरूप से प्रसिद्ध सूर्यादि का स्वप्न में भान से व्यतिरेक है क्योंकि तब भान तो है लेकिन सूर्यादि नहीं हैं । इसलिये भान और आत्मा का अभेद सिद्ध हो जाता है । }
हे सौम्य ! महर्षि याज्ञवल्क्य ने " यहाँ यह पुरुष स्वयंज्योति होता है " इस वाक्य का मुनि ने एक और ढंग से व्याख्यान किया । आगे बताना है कि सपने में आत्मा सभी दृश्य उत्पन्न करता है । उसकी भूमिकारूप से भी स्वयंज्योति - वाक्य का आशय महर्षि समझाते हुए कहते हैं :
हे नरेश ! लोक में आग को स्वयंज्योति तभी कहते हैं जब वह लकड़ी आदि को जला रही हो , लकड़ी में या राख में छिपी आग को प्रकाशरूप नहीं कहा जाता । उसी प्रकार यह आत्मा सपने में स्वयंज्योति कहा जा रहा है । { जहाँ इसकी प्रकाशरूपता सुव्यक्त है} । प्रलय में अव्यक्त हुए जगत् का जो अभिन्न निमित्तोपादान कारण है , नाम - रूप से रहित है , सभी देहों में मौजूद है , वह ब्रह्म ही स्वयंज्योति आत्मा है । वही वस्तुतः निरपेक्ष ज्ञानरूप है । प्रकृत में " स्वयंज्योति " शब्द से उसी का अनुवाद कर उसे प्रमाता का { जीव का } आत्मा अर्थात् वास्तविक स्वरूप बताया जा रहा है। जैसे वह ब्रह्म स्थूल- सूक्ष्म इस सारे प्रपञ्च को उत्पन्न करता है वैसे ही यहाँ कहेंगे कि सारे शरीरों में विद्यमान स्वयंज्योति आत्मा सपने में सब कुछ पैदा करता है । इसलिये स्वयंज्योति कऴाने वाला वह परमात्मा ही यह आत्मा है । { अर्थात् जगद्धेतुता का जो ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है वह जीव में स्वप्न में दिखाया होने से जीव - ब्रह्म की एकता विवक्षित है । दोनों से सच्चिदानन्दरूप स्वरूप लक्षण तो एक है यह प्रसिद्ध ही है । इस प्रकार विज्ञानमय का ऐसा वर्णन हो गया कि उसकी ब्रह्मरूपता संगत हो गयी यह इस व्याख्या का चमत्कार है । }
हे सौम्य ! अब महर्षि याज्ञवल्क्य राजा को " जगज्जन्मादिकारणरूप तटस्थता " का लक्षण बताते है : हे राजन् ! लोकप्रसिद्ध सपने में स्वर्णालंकृत ऊँची ध्वजा वाले , झण्डियों से सजे, मेघतुल्य घोष वाले , विविध उपकरणों से परिपूर्ण { व्यावहारिक } रथ नहीं हुआ करते । वहाँ ऐसे { व्यावहारिक } घोड़े भी नहीं होते जिनकी चाल और कर्णाभूषण विचित्र हों, वायुतुल्य तेज़ी वाले हों , सामने जमीन देखकर शरमा जाते हों { कि अब तक इसे पार क्यों नहीं कर पाये ! } , जो मानो आकाश में उछलते हों , पहाड़ों ने जिसे धारण कर रखा है वह पृथ्वी भी मानो उन से डर जाती हो क्योंकि अगले व पिछले दोनों पैरों से वे उसे खोद डालते हों । सपने में रंग - बिरंगे , मनोरम , मुलायम , ठंडे , चन्दनयुक्त जल से सिंचित मार्ग भी नहीं हुआ करते । घने बाज़ार आदि में बीच से गुज़रते रास्ते सपने में { व्यवहारदृष्ट्या } नहीं होते जिन्हें घड़ों पर रखे ऐसे दीपक प्रकाशित कर रहे हों जो चित्रभित्ति पर खिंचे अनेक चित्रों को स्पष्ट दिखा देते हैं । वहाँ ऐसे पथ नहीं होते जिन पर स्वर्ण - मणि - रत्नों के समूहों से हर तरह अलंकृत , अप्सरा - तुल्य अनन्त ललानायें घूमती हों जिनके करकमलों में दही , लाजा आदि समेत सोने के बर्तन हों । जाग्रत् अवस्था में जैसे अभिलषित युवतियों के सम्पर्क से , भोजन , पेय , वस्त्र , आभरणादि से आनन्द होता है , ऐसे ही सपने में किसी चेतन या जड द्वारा दिये गये कोई आनन्द नहीं होते । प्रिय मिलन और अप्रिय - वियोग से जाग्रत् में जैसे प्रसन्नता होती है ऐसे सपने में कोई वास्तविक प्रसन्नता नहीं होती । जैसे जाग्रत् - संसार में पुत्रादिरहित व्यक्ति को पुत्रादि उत्पन्न होने पर खास हर्ष होता है वैसे सपने में कोई { व्यावहारिक } हर्ष नहीं हुआ करता । जाग्रत् की तरह वहाँ लबालब भरे तालाब और पानी के कुण्ड भी { सचमुच में } होते नहीं हैं । लोकपालों सहित लोक , दिशायें , नभ आदि पाँचो महाभूत , स्वेदजादि चारों तरह के प्राणी , ब्रह्माण्ड या उससे बाऱ का स्थूल - सूक्ष्म कोई पदार्थ सपने में नहीं हुआ करता । उस एक मन को छोड़कर पूर्वोक्त कोई पदार्थ इस सर्वानुभूत स्वप्न में नहीं होता । तब यह स्वयंज्योति आत्मा उसी प्रकार सारे दृश्यों का कर्ता बनता है जिस प्रकार अव्याकृत उपाधि वाला ईश्वर इस जग्रत्सिद्ध संसार का कर्ता है ।
हे राजन् ! जिन रथ आदि के बारे में अभी कहा कि वे सपने में नहीं होते वे रथादि प्रधान हैं जिस विश्वात्मक चित्र में वह चित्र आत्मा माया द्वारा मन रूप भीत पर रूप भीत पर खींच लेता है , इसीलिये उसे स्वाप्न प्रपञ्च का कर्ता , रचयिता कहते हैं । क्योंकि इसका प्रभाव सपने में देखा गया है इसलिये यह निःसंदेह स्वीकार्य है कि यह देहवर्ती आत्मा जगत्कर्ता ईश्वर से अलग नहीं है । देश - काल - निमित्ति आदि से वर्जित गुणहीन पुरुष { सपने में } इस चराचर जगत् को माया के बिना कैसे उत्पन्न कर सकता है? { अतः माया से ही समना बनाया जाने से पता चलता है कि माया से जगत् बनाने वाला और सपना बनाने वाला एक ही है । } ईश्वर जैसे देश - काल - निमित्त आदि उत्पन्न कर बाह्य जगत् उत्पन्न करता है उसी प्रकार यह देहस्थ पुरुष सपने में सब कुछ उत्पन्न कर लेता है ।
हे राजन् ! ब्राह्मण वाक्यों में { वेदों का ब्राह्मण भाग में } आत्मा स्वप्रकाश है यह समझाने के लिये सब शरीरों में विद्यमान आत्मरूप परमेश्वर को स्पप्न में जिस तरह का कर्ता बताया है , वैसा ही मन्त्रों द्वारा भी बताया गया है । श्रुति ने चार मन्त्र उपन्यस्त किये हैं जिनमें यही विषय कहा है । }
: श्रुति ने जो चार मन्त्र उपन्यस्त किया है उस पर अगले क्रम में विचार करेंगे । सावशेष 

Comments

Popular posts from this blog

गायत्री मन्त्र का अर्थ

गायत्री मन्त्र का अर्थ ॐ भूर्भुवः स्वः " तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् " । =========================================== जप के पूर्ण फल को या इष्ट की असीम कृपा का भाजन बनने के लिए और जप के समय मन को अनेक कल्पनाओं से विरत करने का साधन मन्त्रार्थ चिन्तन है । इस परम शक्तिशाली गायत्री मन्त्र का अर्थ मैने अनेक लोगों के दूवारा लिखा देखा है । और उन पर व्यंगबाणों की बौछार भी । जो आप सब मनीषी इससे पूर्व पोस्ट में देख चुके हैं । इस मन्त्र का " तत् " और "यो " तथा " भर्गो " शब्द विद्वत्कल्पों की जिज्ञासा के विषय बने रहे । आलोचकों का मुहतोड़ उत्तर दिया जा चुका है । उससे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का शमन भी हुआ होगा । पर कुछ अनभिज्ञों ने तो "भर्गो " की जगह " भर्गं " करने का दुस्साहस भी किया ; क्योंकि " भर्गं " उन्हे द्वितीया विभक्ति का रूप लगा और " भर्गो " प्रथमान्त पद । पहले हम भर्ग शब्द पर चर्चा करते हैं --- भर्ग शब्द हमारे सामने हिन्दी रूप में उपस्थित होता है और जब उसका संस्कृत रूप में...

* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं – हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश...

अथ निदिध्यासनम्

<<अथ निदिध्यासनम् >> नारायण ! “ निदिध्यासन ” का मतलब क्या है ? बहुत से लोग इसका मतलब ले लेते हैं कि आँख मीँचकरबैठने को ही निदिध्यासन कहा जाता है । " वार्तिककार भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर" कहते हैं : " निदिध्यासस्वेतिशब्दात् सर्वत्यागफलं जगौ । न ह्यन्यचिन्तामत्यक्त्वा निधिध्यासितुमर्हति ॥ " आचार्यने यहाँ यह नहीं कहा है कि " मेरी बात सुनने के बाद निदिध्यासन करो " । वेदान्त शास्त्र में मनन , निदिध्यासन सहकृत श्रवण को ज्ञान के प्रति साक्षात् साधन कहा है । श्रवणकरने के लिए निदिध्यासन करें । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा " आओ बैठो , निदिध्यासन करो । मैं व्याख्यान करूँगातुम निदिध्यासन करो । " सब चीज़ों के त्याग का फल हीआचार्य ने निदिध्यासन कहा है । उस निदिध्यासन का स्वरूप क्या है ? जो निरन्तर गुरु के मुख से सुना जा रहा है , उसका निरन्तर विचार । " अन्तर " काअर्थ होता है - बीच बीच में जगह छोड़ना । " निरन्तर" का अर्थ होता है बीच बीच में जगह न छोड़ना । जिस व्यक्ति कोकिसी कर्म की चिन्ता है वह निदिध्यासन नहीं कर स...