!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { ५ } ~~~
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य राजा जनक को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि " हे राजन्।" ध्यान पूर्वक सुनो - आत्मा से भिन्न जो कुछ भी है वह सभी स्वभावतः विषय ही है अतः उसे भासक आत्मा की जरूरत रहती है । अपने भासक को वह अनात्म - पदार्थ भासित करे यह सम्भव नहीं । " प्रभा " और " अप्रमा " के कारण , प्रमा उसका विषय और फल , अप्रमा तथा उसके विषय व फल - ये सभी अपनी सिद्धि के लिये प्रमातृत्वोपलिक्षत साक्षी का सहरा चाहते ही हैं । अतः इनमें से कोई भी आत्मा को विषय कैसे करे ? { यहाँ प्रमा का अर्थ उस वृत्ति से है जिसके विषय का व्यवहारसीमाओं में बाध नहीं होता । उसका विषय घट आदि संसार है और फल का अर्थ है आवरणनिवृत्ति । जिस विषय का व्यवहारभूमि में ही बाध हो जाये उसे मानो विषय करती वृत्ति अप्रमा है जिसका " फल " भी मानो वैसी ही निवृत्ति है । " मानो " इसलिये कि भ्रम में ज्ञान से स्वतन्त्र विषय और उसका निवर्तनीय आवरण अमान्य है । } जिसकी आँखें स्वस्थ हैं , उसके लिये दूध सफेद ही रहता है , अंधों की संसद भले ही नाना रंगो का निर्धारित करे ! इसी तरह साक्षी तो भासक है अतः उसके लिये प्रमाण - प्रमेय आदि सारा संसार विषयमात्र है ; संसार में किसी को प्रमाण , किसी को प्रमेय इत्यादि विभाजन अंधविश्वास ही है ! जब यह निर्णीत है कि प्रमाण - अप्रमाण साक्षी के विषय ही हैं तो साक्षी को प्रकाशित करने का उनका मनोरथ भग्न ही होना है ! विषय कहते हैं फल के आश्रय को ; साक्षी को विषय करने जाने पर प्रमाण - अप्रमाण का ही प्रतिघात होता है जैसे कठोर शिला पर उसे काटने के लिये कुल्हाड़ी चलायें तो शिला में कोई अन्तर नहीं आता , कुल्हाड़ी बिगड़ती है । प्रतिघातरूप फल का आश्रय प्रमाण - अप्रमाण ही होने से वे ही विषय कहलाने योग्य हैं, आत्मा या साक्षी को विषय नहीं कर सकते । जैसे प्रमाण - अप्रमाण वैसे उनके फल प्रमा - अप्रमा भी विषय ही हैं और उनका भी फल जो ज्ञाततादि है , वे भी विषयकोटि में ही रहते हैं । प्रमाणादि के विषय घटादि विषय हैं इसमें कहना ही क्या ? इस प्रकार ये सभी विषय हैं । ऐसी परिस्थिति में इन्हें आपस में विभिन्न और प्रमाण - अप्रमाण आदि को परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाला जो लोग कहते हैं उनका साहसमात्र है । वस्तुतः तो इनमें विषयता होने से ये एकरूप ही हैं ।
हे राजन् ! प्रमाण - प्रमाण को विभिन्न मानकर निर्वचन की कोशिश गलत है , यह विचार से निर्णीत हो जाता है : अप्रमाण का निर्वचन करने के लिये उसका स्वरूप बताना होगा , वह प्रमाण से ग्रहण होता है या अप्रमाण से ? यदि अप्रमाण का स्वरूप अप्रमाण से ता चला कर निर्वचन में प्रवृत्ति है तब स्पष्ट ही निर्वचनकर्ता की भ्रान्तता है ! यदि कहो कि अप्रमाण को प्रमाण से जाना जाता है तब भी कहना अटपता है क्योंकि अप्रमाण के ग्राहक को प्रमाण कहना बनता ही नहीं । { मिथ्यार्थ- विशिष्ट ही अप्रमाण होगा , अतः उसका ग्राहक भी मिथ्यार्थ को विषय करेगा , जिससे वह प्रमाण कहला नहीं सकता । } यदि मिथ्यार्थगोचर को भी प्रमाण कहो तब प्रमाण - अप्रमाण इस विभाजन का कोई मायने ही नहीं रहेगा । इतना ही नहीं , यह निर्णीत भी नहीं कि प्रमाण हमेशा प्रमाण ही रहे : रूप की अपेक्षा से चक्षु प्रमाण मानी जाती है लेकिन गंध की अपेक्षा से वही अप्रमाण हो जाती है! अतः प्रमाण - अप्रमाण तो वादियों के अनुसार बदलते रहते हैं , इस पर विचार करना व्यर्थ ही है । जब अप्रमाण को प्रमाणगोचर मान लिया तब प्रमाण की भी प्रमाणता रह कहाँ गयी ? रज्जु के ज्ञानों में जैसे प्रमाणता नहीं वैसे ही अप्रमाणग्राहक होने पर प्रमाण में भी नहीं रहेगी ।
प्रमाण अप्रमाण रूप साधनों के बारे में जो बताया कि इनका विभक्त निर्वचन सम्भव नहीं वह प्रमा और अप्रमा के बारे में भी समझ लेना चाहिये । प्रमा का ग्रहण किससे होगा ? यदि अप्रमा से हो तो अप्रमाविषय होने से प्रमा भी अप्रमा होगा और भिन्न हो तो अन्योनाश्रय , चक्रक तथा अनवस्था का मार्ग खुल जायेगा । जब प्रमा - अप्रमा के कारणों और उनसे अन्य प्रमा - अप्रमा वृत्तियों का भेद ही प्रमाणसिद्ध नहीं तब प्रमाणादि पर आश्रित भेद वाले फल में भेद प्रमाणिक नहीं हो सकता इसमें कहना ही क्या ! आवरणनिवृत्ति से उपलक्षित जो अर्थप्रकाशरूप फल उसमें स्वभाव से ही कोई भेद हो यह तो सम्भव नहीं , प्रमाणादि जब उपाधि हों तभी फल में किसी भेद को समझा जाता है जो भेद वस्तुतः उपाधियों का होता है । जब उन उपाधियों में भेद का बाध दिखा दिया तो उनसे उपहित फल में भेद नहीं इसमें कहना ही क्या ?
हे राजन् ! जब भेददर्शन की सामग्री ही प्रमाणिक हो नहीं सकी तब विषयों में प्रमाणिक भेद नहीं है इसमें कोई संदेह नहीं । प्रमारूप ज्ञान से ही विषयसत्ता का निर्णय करना चाहिये । यदि ज्ञान अप्रमा होगा तो कहीं कोई विषय कभी सिद्ध नहीं होगा । ऐसा न माने तो जब प्रमाद { असावधानी } नहीं है तब रज्जुसर्पादि सिद्ध होने चाहिये क्योंकि सत्य पदार्थ सावधानी से देखने पर उपलब्ध अवश्य होते हैं । इसलिये विषयभेद किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हैं ।
हे राजन् ! विषयसिद्धि प्रमाणिक नहीं क्योंकि प्रमाणता ही सही - सही परिभाषित नहीं हो पाती । यह विचारणीय है कि विषयों का ग्रहण करते हुए करणों को प्रमाण मानें या स्वभाववश ही स्वीकार लें कि अमुक कारण प्रमाण ही है ? यदि विषय ग्रहण करते हुए प्रमाण मानना इष्ट हो तो न विषय सिद्ध होगा , न प्रमाण ! { प्रामाणिक विषय ग्रहण करे तभी कारण प्रमाण हो और प्रमाणसिद्ध होने पर ही विषय प्रामाणिक होगा ; इस प्रकार दोनों की सिद्धि एक - दूसरे की अपेक्षा रखेगी जिससे अन्योनाश्रय दोष स्फुट है । } इससे बचने के लिये यदि प्रमाणता को स्वभाविक मानें तो शंका होगी कि तब अप्रमाणता भी स्वभावतः ही क्यों न मानी जाये ? प्रमाण होना निरपेक्ष अतः औत्सर्गिक है जबकि दोष समझ आने पर अप्रमाणता पता चलती है अतः वह परतः होना ठीक है - ऐसा समाधान मीमांसक करते हैं ; किन्तु पुनः परीक्षणीय है कि दोष का ग्रहण करने वाल ज्ञान भी अप्रमाण है यह दोषग्राहक किसी अन्य ज्ञान से क्यों पता नहीं चल जाता ? इस पर यदि कहो कि दोषग्राहक ज्ञान भी अप्रमाण हो तो सकता था लेकिन अप्रमाणता का हेतुभूत कोई दोष पता चल नहीं रहा इसलिये उसे अप्रमाण नहीं कह सकते ; तो इस कथन से भी प्रमाण की सिद्धि दुर्लभ है : प्रमाण बना रहने के लिये अपेक्षित जो दोषाभाव उसका ग्रहण जिस अनुपलब्धि से हो रहा है { कि प्रमाणता का प्रयोजक दोष है नहीं , } वह प्रमाण है या अप्रमाण ? यदि यह प्रमाण है तो पुनः प्रश्न उठेगा कि अप्रमाण क्यों नहीं ? यही उत्तर दोगे कि दोष नहीं है इसलिये प्रमाण नहीं । " दोष नहीं है " यह अनुपलब्धि से पता चलेगा , वह प्रमाण होगी या अप्रमाण ! यों अनवस्था ही होगी ! दूसरा और यदि अनुपलब्धि अप्रमाण है तो जिसे निर्दोषता अप्रामाणिक होने पर वस्तुतः सदोष होगा अतः अप्रमाण होगा ।
इस प्रकार प्रमाणता सिद्ध न होने से तुम्हारे मत का अनुसण करने पर हमें विषयों की सत्ता में कोई प्रमाण मिल नहीं रहा । विषयसत्ता की अपेक्षा से ही प्रमा - अप्रमा समझे जाते हैं । जब विषयसत्ता में ही प्रमाण नहीं तब प्रमा - अप्रमा ये प्रमाण क्यों कर पायेगा ? किंच यदि यह मानते हो कि सभी कुछ प्रमेय होता है { जैसा न्यायी माना करते है } तो प्रमा - प्रमाण - प्रमेय - फल यह चतुष्टय { चार का समूह } कैसे सिद्ध होगा { क्योंकि इसका तो एक अवयव ही है " प्रमेय " } ? और यदि यह चतुष्टय नहीं होगा { अर्थात् प्रामाणिक एवं प्रमेय नहीं होगा } तो प्रमा आदि व्यवहारसाधक कैसे होंगे { क्योंकि अप्रमाणिक को तार्किक व्यवहार का साधक नहीं मानता । } ?
सावशेष ......
नारायण स्मृतिः
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