!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { २ } ~~~
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नारायण ! गुरु ने शिष्य को बताया कि ब्रह्मवेत्ता मुनि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक से कहा - तुम विवेकशील हो , अब तक जिस - किसी ब्राह्मण ने तुम्हें जो कोई ज्ञान दिया है वह यदि रहस्यभूत न हो तो मुझे बताओ , मैं सुनना चाहता हूँ । सुनने के बाद जो मुझे समझाना उचित लगेगा वह मैं तुम्हें बताऊँगा ।
मुनि याज्ञवल्क्य द्वारा यों पूछे जाने पर राजा जनक ने उन्हें वह नाना प्रकार का विज्ञान { विशिष्ट ब्रह्म सम्बद्ध उपासना } सुनाया जो अन्य मुनियों ने पूर्व में राजा को सिखाया था। राजा ने बताया कि उसे 6 छह मुनियों ने विद्या दी थी । उनके नाम थे - जित्वा शैलिनि , शौल्बायन उदङ्क , वर्कु वार्ष्णि , गदभीविपीत भारद्वाज , सत्यकाम जाबाल और विदग्ध शाकल्य { जिसका वर्णन पूर्व के सत्संग - " महामुनि याज्ञवल्क्य " के प्रसंग में किया गया था } । राजा ने कहा - " हे विप्र ! " इन मुनियों ने मुझे 6 छह ब्रह्म - सगुण ब्रह्म के 6 छह रूप - बताये । वे रूप हैं - वाक् , घ्राण , चक्षु , श्रोत्र , मन और हृदय । { वागादि से अधिदैवरूप समझना चाहिये - अग्नि , वायु , सूर्य , दिक् , चन्द्र और प्रजापति।}।
नारायण ! राजा ने जब अपनी जानकारी व्यक्त की तो मुनि ने उपदेष्टाओं की भी प्रशंसा की और उपास्यदेवताओं की भी प्रशंसा की कि वे जगत् का निर्वाह करते हैं । महर्षि ने 6 छहों उपदेशों के बारे में कहा कि वे चौथाई हिस्से का ही उपदेश हैं ! यों पूर्वोपदेशों में कमी बताने पर राजा की प्रार्थना पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने 6 छहों विज्ञानों के बाकी 3 तीन चरणों का रहस्य भी प्रकट किया । हर देवता का आश्रय बताया , सबके आश्रय का उल्लेख किया और 6 छहों के उपनिषद् अर्थात् उपासनीय रहस्यभूत नाम भी बताये । इससे अतिरिक्त , उपास्तिफल का भी वर्णण किया । { इसका संक्षेप इस प्रकार है - जो अनुलग्नक छायाचित्र में अवलोकन किजीये । } ।
{ हृदय के विश्लेषणार्थ पूर्व के सत्संग " महामुनि याज्ञवल्क्य" के विदग्ध शाकल्य प्रश्न का अनुसंधान कर लेना चाहिये । स्पष्ट कर दें कि प्रथम पाद का - देवताओं का - चिन्तन करने से हिरण्यगर्भ का स्परण होता है , द्वितीय पाद के चिन्तन से विराट् की स्मृति होती है , तीसरे के चिन्तन से ईश्वर की और चौथे - रहस्यनाम - के चिन्तन से तुरीये की याद आती है । तत्त्वज्ञान के प्रसंग में उपस्थापन का प्रयोजन भी यों सर्वानुगत का अनुस्मरण ही है । } ।
नारायण ! हर बार जब महात्मा याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म के 3 तीन चरणों का उपदेश दिया तब राजा ने उन्हें गुरुदक्षिणा भेंट करने की पेशकश की । नवप्रसूता 1000 एक हजार गायें और हाथी - सा तगड़ा साँड - यह दक्षिणा हर पर्याय पर राजा देना चाहता था । किन्तु छहों बार राजा ने जब निवेदन किया तब मुनिश्वर याज्ञवल्क्य ने एक ही जवाब दिया , " मेरे पिता ने मुझे उपदेश दिया था कि जब तक शिष्य कृतार्थ न हो जाये , उसका यह भ्रम मिट न जाये कि अभी कोई प्रयोजन साधना बचा है , तब तक उससे गुरुदक्षिणा न लेना । " { इससे सूचित किया कि केवल उपासना के ज्ञान से, अनुष्ठान से , कृतकृत्यता नहीं हो जाती । } ।
नारायण ! राजा जनक ने मुनिश्वर याज्ञवल्क्य को यों निर्लोभ और अपने पर इतना कृपालु देखा तो अत्यन्त आश्चर्य और विनय से भर गया । वह अपने सिंहासन से उतर गया तथा उसने महामुनि को भूमि पर लेट अंजलि बाँधे दण्डवत् प्रणाम कर यह प्रार्थना की :
" हे याज्ञवल्क्य ! हे मननकुशल! हे मुनिश्रेष्ठ ! आपको हमेशा प्रणाम हो । मैं अज्ञानी हूँ , इस संसाररूप घोर जंगल में आ गिरा हूँ और अंधे जैसा हूँ । मैं आपसे श्रद्धापूर्वक पूछ रहा हूँ , मुझे ऐसे मार्ग की शिक्षा दीजिये जिस पर चलूँ तो इस संसार जंगल में पुनः लौटना न पड़े । इस जंगल में कामदेव वह साँप है जो इसे तरह - तरह से घेरे हुए है । इसमें संचरण बहुत मुश्किल है क्योंकि कदम - कदम पर नारीरूप गड्ढे हैं । अनेक इन्द्रिय - समुह रूप भेडिये इस वन का सेवन करते हैं । इसकी दिशाएँ अहंकाररूप महासिंह की दहाड़ों से गूँजती रहती हैं । क्रोध ही आग्नेय - अस्त्र की वह्नि है , जो चित्तभूमिरूप हरी - भरी जमीन को सुखा डालती है और सद्गुणरूप पेड़ों को जला डालती है । इस भीषण जंगल में परम भयप्रद व्याधा है मृत्यु ! वह जिस कुत्ते की डोरी अपने हाथ में लिये है वह कुत्ता मेरा मन ही है । काल उसका धनुष है , बुढ़ापा , बीमारी आदि उसके बाण हैं । जंगली सभी जन्तुओं को वही मारता फिरता है । मेरे प्राण लेने वाला बाण जब तक नहीं छूट जाता तब तक शीघ्र मुझे उपदेश दीजिये । हे मुनिश्वर! देर करने का मौका नहीं है । " { मन मृत्यु के निर्देश को टाल नहीं पाता , जैसे ही आज्ञा मिलती है " निकलो " , वैसे ही वह न चाहकर भी तुरन्त शरीर छोड़ देता है इसलिये मृत्यु का मानो पालतू कुत्ता है । } ।
इस प्रकार पूछे जाने पर स्वभावतः कृपालु याज्ञवल्क्य को और भी अधिक कृपा का उद्रेक हुआ और अधिकारी रूप से निश्चित उस राजा से उन्होंने यह कहा : हे राजन् ! आपने मार्ग पूछा है लेकिन आपने जिस गन्तव्य का निर्णय किया है उसे जाने बिना मैं मार्ग बता ही नहीं सकता । अतः पहले मुझे अपना गन्तव्य बताओ । तुमने जिन कर्म - उपासनाओं को समझा और किया है वे अवश्य मनोनैर्मल्य द्वारा किसी गन्तव्य पर पहुँचाने वाले उपाय हैं । उनसे क्या प्राप्य है यह जानते हो तो बताओ । कोई व्यक्ति को लम्बे रास्ते जाने हो तो जमीन की यात्रा के लिये रथादि , जल की यात्रा के लिये नोका आदि वाहन की व्यवस्था रखता है । इसी प्रकार तुमने उपासनायें अनुष्ठित कर रखी हैं जिनके सहारे तुम इस संसार से आगे की यात्रा करोगे । ब्रह्म के जिन 6 छह रूपी की अभी चर्चा हुई वे प्रज्ञा , प्रिय , सत्य , अनन्त , आनन्द और स्थिति नामों से सम्बद्ध हैं और उनकी उपासना रथ , नाव आदि यान के तुल्य है । इन उपासनाओं से तुम सम्पन्न हो , लोक में देवता जैसे अर्चित हो , वेद पढ़े हुए हो , विविध उपासनाओं से परिचित हो , ज्ञान को धनरूप से एकत्र आदि करने में रुचि रखते हो , अतः वस्तुतः महान् ही हो । इतने विचारशील हो इसीलिये पूछ रहा हूँ - इस शरीर को छोड़ने पर कहाँ जाओगे ? तुम्हारा गन्तव्य क्या है ? यह बताओ , तब मैं मार्ग भी स्पष्ट कर दूँगा । यदि किसी गन्तव्य को निश्चित किये बिना यों ही कहा जाये - यह रास्ता विदेह देश को जाता है , यह कौशल राज्य की और जाता है , यह आनर्त { गुजरात } देश का मार्ग है, यह त्रिगर्त का रास्ता है - तो यों दिशा का निर्देश कर देने पर भी मार्ग नहीं कहा जैसा ही रह जाता है । हे राजन् ! यदि तुम्हारे गन्तव्य को जाने बिना मैं भी मार्गनिरूपण करने लगूँ तो ऐसा ही हाल होगा ! यों न हो इसलिये तुम जहाँ जाना चाहते हो वह बताओ , उसी के रास्ते का विस्तृत वर्णन कर दूँगा ताकि तुम बेखटके उस पर चलते रह सको और मंजिल तक आराम से पहुँच जाओ ।
नारायण ! गुरु शिष्य को सुनाते हुए कहते हैं कि हो सोम्य ! महर्षि ने जब यों गन्तव्य पूछा तब राजा जनक ने अपने अज्ञान को प्रकाशन किया ताकि स्पष्ट हो कि वह किसी परीक्षार्थ या कुतर्कादि से नहीं पूछ रहा वरन् श्रद्धापूर्वक जिज्ञासा से पूछ रहा है । राजा ने कहा - हे गुरो ! मुझे न अपने ही गन्तव्य का पता है और न यह मालूम है कि कोई भी अधिकारी किस गन्तव्य को प्राप्त करता है हे भगवन् ! मेरा हाल ऐसे अंधे का है जो अपने देश से विस्थापित होकर परदेश में जंगली जानवरों से घिरे जंगल में भटक गया हो , दिशाओं की जानकारी उसे हो न पा रही हो , दिशाओं को उल्टा - पुल्टा समझ रहा है , भूख - प्यास से पीडित हो और बुड्ढ़ा होने से कुछ भी याद न कर पा रहे हो ! ऐसा आतुर कुछ भी नहीं जानता , " कहाँ से आया हूँ? कहाँ मेरा गाँव है ? " यह भी उसे याद नहीं , अतः विविध देशों के जानकार किसी दयालु को पाकर वह सभी देशों के समूचे मार्ग पूछता जाता है । { सब देशों का उल्लेख होगा तो उसकी जन्मभूमि भी कही जायेगी जिसे सुनने पर उसे स्मृति होना सहज है और तब मार्ग का पता चल जायेगा । किं च उससे बात - चीत होगी तो दयालु भी उसके देशादि के बारे में कुछ - न - कुछ समझ जायेगा और अपनी ही ओर से उसे किसी सही सरल रास्ते पर भेज देगा - यह भाव है । } ।
नारायण ! राजा जनक याज्ञयवल्क्य को सम्बोधित करते हुए कहता है कि " हे ब्राह्मणदेवता ! मुझे यह भी नहीं पता कि मैं कहाँ से आया हूँ । { गहरी नींद या प्रलय में जहाँ जाकर लोटता हूँ उसका मुझे कुछ पता नहीं । } खुद जो अनुभव कर चुका हूँ , उपस्थित जिस अनुभव को कह रहा हूँ तथा आगे जो अनुभव करूँगा - तीनों ही अनुभव आत्मा के किस वैशिष्ट्य या स्वरूप से होते है इससे भी बेखबर हूँ । { जगा और सपने देखते हुए मैं वस्तुतः कैसा हूँ इसकी भी मुझे जानकारी नहीं । } जब विशिष्टरूपों को ही नहीं जानता तब वास्तव में किस स्वरूप वाला हूँ यह कैसे जानूँगा ! मैं सुख - दुःख भोग रहा हूँ लेकिन क्यों वे उत्पन्न होते हैं , क्यों मुझे उनका अनुभव होता है इसकी मुझे जानकारी नहीं , मेरे संसरण का क्या निमित्त है मुझे अज्ञात ही है ।
हे महर्षि ! बचपन से आज तक मैं केवल एक दुःख का अनुभव कर रहा हूँ । वह भी किसे , किससे , कैसे होता है , इससे मैं सर्वथा अपरिचित हूँ ! कोई महान् आग जली हो , जंगल जल रहा हो , उसमें कोई पतंगा फँस जाये पर जले नहीं और हवा से बार - बार ज्वालाओं में पड़ता रहे तो जैसे उसे दुःखातिरिक्त कुछ पता नहीं चलता , न वह खुद को याद रख पाता है , न और किसी पशु - पक्षी की ओर उसका ध्यान जाता है , दुःख का कारण क्या है यह भी समझने की उसे फुर्सत नहीं रहती , दुःख किस तरह का है यह विश्लेषण वह कर यह सर्वथा नामुमकिन है , वह तो दुःख का मानो एक मूर्तिमान् रूप ही हो जाता है ; ऐसे ही मैं इस संसार में कुछ नहीं जानता , क्लेश ही मेरे अनुभव में आ रहा है , यहाँ तक कि उस क्लेश के प्रकार भी मैं विविक्तकर नहीं जान सक रहा हूँ ! ऐसा मूर्ख मैं यह कैसे जान सकता हूँ कि मुझे जाना कहाँ है ? इस संसार से परे क्या है जो मेरे लिये प्राप्तव्य है ?
हे महात्मन् ! अगर मुझे गन्तव्य पता होता तो उस तक पहुँचने का रास्ता भी मैं जान ही लेता ! जिस यात्री को गन्तव्य की सही जानकारी होती है वह अन्य राहगीरों से पूछ - पूछ कर वहाँ पहुँच ही जाता है । अतः मार्ग पूछने का मतलब यही है कि आप मन्तव्य बतायेंगे । मुक्त कहाँ जाता है इसका अज्ञान कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि कर्मफलरूप प्राप्तव्य को जान पाना भी अत्यन्त कठिन होता है । स्थूल शरीर से कौन निकलता है और निकलने पर किस स्वरूप वाला रहता है , कैसे निकलता है और कैसे भावी लोक , शरीर आदि तक जाता है ; मर कर फल क्या मिलता है ; ये सब इन्द्रियों से अतीत बाते हैं, इन्हें लौकिक लोगों में कौन जानता है । इसीलिये मैंने आपसे यह प्रश्न किया है । आप स्वयं महान् विद्वान् हैं और आपके श्रीगुरु सूर्यदेव सर्वज्ञ हैं इसमें क्या कहना ? इस लोक के और परलोक के बारे में आप सारी जानकारी रखते हैं । आप महात्मा हैं , सर्वत्र आत्मदर्शन करने से आप मेरे दुःख को समझते हैं और दयास्वभाव वाले होने से उसे दूर करने को उद्यत हैं । इसमें आप सफल भी होंगे ही क्योंकि आप भगवान् हैं , ऐश्वर्यशाली हैं । सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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नारायण ! गुरु ने शिष्य को बताया कि ब्रह्मवेत्ता मुनि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक से कहा - तुम विवेकशील हो , अब तक जिस - किसी ब्राह्मण ने तुम्हें जो कोई ज्ञान दिया है वह यदि रहस्यभूत न हो तो मुझे बताओ , मैं सुनना चाहता हूँ । सुनने के बाद जो मुझे समझाना उचित लगेगा वह मैं तुम्हें बताऊँगा ।
मुनि याज्ञवल्क्य द्वारा यों पूछे जाने पर राजा जनक ने उन्हें वह नाना प्रकार का विज्ञान { विशिष्ट ब्रह्म सम्बद्ध उपासना } सुनाया जो अन्य मुनियों ने पूर्व में राजा को सिखाया था। राजा ने बताया कि उसे 6 छह मुनियों ने विद्या दी थी । उनके नाम थे - जित्वा शैलिनि , शौल्बायन उदङ्क , वर्कु वार्ष्णि , गदभीविपीत भारद्वाज , सत्यकाम जाबाल और विदग्ध शाकल्य { जिसका वर्णन पूर्व के सत्संग - " महामुनि याज्ञवल्क्य " के प्रसंग में किया गया था } । राजा ने कहा - " हे विप्र ! " इन मुनियों ने मुझे 6 छह ब्रह्म - सगुण ब्रह्म के 6 छह रूप - बताये । वे रूप हैं - वाक् , घ्राण , चक्षु , श्रोत्र , मन और हृदय । { वागादि से अधिदैवरूप समझना चाहिये - अग्नि , वायु , सूर्य , दिक् , चन्द्र और प्रजापति।}।
नारायण ! राजा ने जब अपनी जानकारी व्यक्त की तो मुनि ने उपदेष्टाओं की भी प्रशंसा की और उपास्यदेवताओं की भी प्रशंसा की कि वे जगत् का निर्वाह करते हैं । महर्षि ने 6 छहों उपदेशों के बारे में कहा कि वे चौथाई हिस्से का ही उपदेश हैं ! यों पूर्वोपदेशों में कमी बताने पर राजा की प्रार्थना पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने 6 छहों विज्ञानों के बाकी 3 तीन चरणों का रहस्य भी प्रकट किया । हर देवता का आश्रय बताया , सबके आश्रय का उल्लेख किया और 6 छहों के उपनिषद् अर्थात् उपासनीय रहस्यभूत नाम भी बताये । इससे अतिरिक्त , उपास्तिफल का भी वर्णण किया । { इसका संक्षेप इस प्रकार है - जो अनुलग्नक छायाचित्र में अवलोकन किजीये । } ।
{ हृदय के विश्लेषणार्थ पूर्व के सत्संग " महामुनि याज्ञवल्क्य" के विदग्ध शाकल्य प्रश्न का अनुसंधान कर लेना चाहिये । स्पष्ट कर दें कि प्रथम पाद का - देवताओं का - चिन्तन करने से हिरण्यगर्भ का स्परण होता है , द्वितीय पाद के चिन्तन से विराट् की स्मृति होती है , तीसरे के चिन्तन से ईश्वर की और चौथे - रहस्यनाम - के चिन्तन से तुरीये की याद आती है । तत्त्वज्ञान के प्रसंग में उपस्थापन का प्रयोजन भी यों सर्वानुगत का अनुस्मरण ही है । } ।
नारायण ! हर बार जब महात्मा याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म के 3 तीन चरणों का उपदेश दिया तब राजा ने उन्हें गुरुदक्षिणा भेंट करने की पेशकश की । नवप्रसूता 1000 एक हजार गायें और हाथी - सा तगड़ा साँड - यह दक्षिणा हर पर्याय पर राजा देना चाहता था । किन्तु छहों बार राजा ने जब निवेदन किया तब मुनिश्वर याज्ञवल्क्य ने एक ही जवाब दिया , " मेरे पिता ने मुझे उपदेश दिया था कि जब तक शिष्य कृतार्थ न हो जाये , उसका यह भ्रम मिट न जाये कि अभी कोई प्रयोजन साधना बचा है , तब तक उससे गुरुदक्षिणा न लेना । " { इससे सूचित किया कि केवल उपासना के ज्ञान से, अनुष्ठान से , कृतकृत्यता नहीं हो जाती । } ।
नारायण ! राजा जनक ने मुनिश्वर याज्ञवल्क्य को यों निर्लोभ और अपने पर इतना कृपालु देखा तो अत्यन्त आश्चर्य और विनय से भर गया । वह अपने सिंहासन से उतर गया तथा उसने महामुनि को भूमि पर लेट अंजलि बाँधे दण्डवत् प्रणाम कर यह प्रार्थना की :
" हे याज्ञवल्क्य ! हे मननकुशल! हे मुनिश्रेष्ठ ! आपको हमेशा प्रणाम हो । मैं अज्ञानी हूँ , इस संसाररूप घोर जंगल में आ गिरा हूँ और अंधे जैसा हूँ । मैं आपसे श्रद्धापूर्वक पूछ रहा हूँ , मुझे ऐसे मार्ग की शिक्षा दीजिये जिस पर चलूँ तो इस संसार जंगल में पुनः लौटना न पड़े । इस जंगल में कामदेव वह साँप है जो इसे तरह - तरह से घेरे हुए है । इसमें संचरण बहुत मुश्किल है क्योंकि कदम - कदम पर नारीरूप गड्ढे हैं । अनेक इन्द्रिय - समुह रूप भेडिये इस वन का सेवन करते हैं । इसकी दिशाएँ अहंकाररूप महासिंह की दहाड़ों से गूँजती रहती हैं । क्रोध ही आग्नेय - अस्त्र की वह्नि है , जो चित्तभूमिरूप हरी - भरी जमीन को सुखा डालती है और सद्गुणरूप पेड़ों को जला डालती है । इस भीषण जंगल में परम भयप्रद व्याधा है मृत्यु ! वह जिस कुत्ते की डोरी अपने हाथ में लिये है वह कुत्ता मेरा मन ही है । काल उसका धनुष है , बुढ़ापा , बीमारी आदि उसके बाण हैं । जंगली सभी जन्तुओं को वही मारता फिरता है । मेरे प्राण लेने वाला बाण जब तक नहीं छूट जाता तब तक शीघ्र मुझे उपदेश दीजिये । हे मुनिश्वर! देर करने का मौका नहीं है । " { मन मृत्यु के निर्देश को टाल नहीं पाता , जैसे ही आज्ञा मिलती है " निकलो " , वैसे ही वह न चाहकर भी तुरन्त शरीर छोड़ देता है इसलिये मृत्यु का मानो पालतू कुत्ता है । } ।
इस प्रकार पूछे जाने पर स्वभावतः कृपालु याज्ञवल्क्य को और भी अधिक कृपा का उद्रेक हुआ और अधिकारी रूप से निश्चित उस राजा से उन्होंने यह कहा : हे राजन् ! आपने मार्ग पूछा है लेकिन आपने जिस गन्तव्य का निर्णय किया है उसे जाने बिना मैं मार्ग बता ही नहीं सकता । अतः पहले मुझे अपना गन्तव्य बताओ । तुमने जिन कर्म - उपासनाओं को समझा और किया है वे अवश्य मनोनैर्मल्य द्वारा किसी गन्तव्य पर पहुँचाने वाले उपाय हैं । उनसे क्या प्राप्य है यह जानते हो तो बताओ । कोई व्यक्ति को लम्बे रास्ते जाने हो तो जमीन की यात्रा के लिये रथादि , जल की यात्रा के लिये नोका आदि वाहन की व्यवस्था रखता है । इसी प्रकार तुमने उपासनायें अनुष्ठित कर रखी हैं जिनके सहारे तुम इस संसार से आगे की यात्रा करोगे । ब्रह्म के जिन 6 छह रूपी की अभी चर्चा हुई वे प्रज्ञा , प्रिय , सत्य , अनन्त , आनन्द और स्थिति नामों से सम्बद्ध हैं और उनकी उपासना रथ , नाव आदि यान के तुल्य है । इन उपासनाओं से तुम सम्पन्न हो , लोक में देवता जैसे अर्चित हो , वेद पढ़े हुए हो , विविध उपासनाओं से परिचित हो , ज्ञान को धनरूप से एकत्र आदि करने में रुचि रखते हो , अतः वस्तुतः महान् ही हो । इतने विचारशील हो इसीलिये पूछ रहा हूँ - इस शरीर को छोड़ने पर कहाँ जाओगे ? तुम्हारा गन्तव्य क्या है ? यह बताओ , तब मैं मार्ग भी स्पष्ट कर दूँगा । यदि किसी गन्तव्य को निश्चित किये बिना यों ही कहा जाये - यह रास्ता विदेह देश को जाता है , यह कौशल राज्य की और जाता है , यह आनर्त { गुजरात } देश का मार्ग है, यह त्रिगर्त का रास्ता है - तो यों दिशा का निर्देश कर देने पर भी मार्ग नहीं कहा जैसा ही रह जाता है । हे राजन् ! यदि तुम्हारे गन्तव्य को जाने बिना मैं भी मार्गनिरूपण करने लगूँ तो ऐसा ही हाल होगा ! यों न हो इसलिये तुम जहाँ जाना चाहते हो वह बताओ , उसी के रास्ते का विस्तृत वर्णन कर दूँगा ताकि तुम बेखटके उस पर चलते रह सको और मंजिल तक आराम से पहुँच जाओ ।
नारायण ! गुरु शिष्य को सुनाते हुए कहते हैं कि हो सोम्य ! महर्षि ने जब यों गन्तव्य पूछा तब राजा जनक ने अपने अज्ञान को प्रकाशन किया ताकि स्पष्ट हो कि वह किसी परीक्षार्थ या कुतर्कादि से नहीं पूछ रहा वरन् श्रद्धापूर्वक जिज्ञासा से पूछ रहा है । राजा ने कहा - हे गुरो ! मुझे न अपने ही गन्तव्य का पता है और न यह मालूम है कि कोई भी अधिकारी किस गन्तव्य को प्राप्त करता है हे भगवन् ! मेरा हाल ऐसे अंधे का है जो अपने देश से विस्थापित होकर परदेश में जंगली जानवरों से घिरे जंगल में भटक गया हो , दिशाओं की जानकारी उसे हो न पा रही हो , दिशाओं को उल्टा - पुल्टा समझ रहा है , भूख - प्यास से पीडित हो और बुड्ढ़ा होने से कुछ भी याद न कर पा रहे हो ! ऐसा आतुर कुछ भी नहीं जानता , " कहाँ से आया हूँ? कहाँ मेरा गाँव है ? " यह भी उसे याद नहीं , अतः विविध देशों के जानकार किसी दयालु को पाकर वह सभी देशों के समूचे मार्ग पूछता जाता है । { सब देशों का उल्लेख होगा तो उसकी जन्मभूमि भी कही जायेगी जिसे सुनने पर उसे स्मृति होना सहज है और तब मार्ग का पता चल जायेगा । किं च उससे बात - चीत होगी तो दयालु भी उसके देशादि के बारे में कुछ - न - कुछ समझ जायेगा और अपनी ही ओर से उसे किसी सही सरल रास्ते पर भेज देगा - यह भाव है । } ।
नारायण ! राजा जनक याज्ञयवल्क्य को सम्बोधित करते हुए कहता है कि " हे ब्राह्मणदेवता ! मुझे यह भी नहीं पता कि मैं कहाँ से आया हूँ । { गहरी नींद या प्रलय में जहाँ जाकर लोटता हूँ उसका मुझे कुछ पता नहीं । } खुद जो अनुभव कर चुका हूँ , उपस्थित जिस अनुभव को कह रहा हूँ तथा आगे जो अनुभव करूँगा - तीनों ही अनुभव आत्मा के किस वैशिष्ट्य या स्वरूप से होते है इससे भी बेखबर हूँ । { जगा और सपने देखते हुए मैं वस्तुतः कैसा हूँ इसकी भी मुझे जानकारी नहीं । } जब विशिष्टरूपों को ही नहीं जानता तब वास्तव में किस स्वरूप वाला हूँ यह कैसे जानूँगा ! मैं सुख - दुःख भोग रहा हूँ लेकिन क्यों वे उत्पन्न होते हैं , क्यों मुझे उनका अनुभव होता है इसकी मुझे जानकारी नहीं , मेरे संसरण का क्या निमित्त है मुझे अज्ञात ही है ।
हे महर्षि ! बचपन से आज तक मैं केवल एक दुःख का अनुभव कर रहा हूँ । वह भी किसे , किससे , कैसे होता है , इससे मैं सर्वथा अपरिचित हूँ ! कोई महान् आग जली हो , जंगल जल रहा हो , उसमें कोई पतंगा फँस जाये पर जले नहीं और हवा से बार - बार ज्वालाओं में पड़ता रहे तो जैसे उसे दुःखातिरिक्त कुछ पता नहीं चलता , न वह खुद को याद रख पाता है , न और किसी पशु - पक्षी की ओर उसका ध्यान जाता है , दुःख का कारण क्या है यह भी समझने की उसे फुर्सत नहीं रहती , दुःख किस तरह का है यह विश्लेषण वह कर यह सर्वथा नामुमकिन है , वह तो दुःख का मानो एक मूर्तिमान् रूप ही हो जाता है ; ऐसे ही मैं इस संसार में कुछ नहीं जानता , क्लेश ही मेरे अनुभव में आ रहा है , यहाँ तक कि उस क्लेश के प्रकार भी मैं विविक्तकर नहीं जान सक रहा हूँ ! ऐसा मूर्ख मैं यह कैसे जान सकता हूँ कि मुझे जाना कहाँ है ? इस संसार से परे क्या है जो मेरे लिये प्राप्तव्य है ?
हे महात्मन् ! अगर मुझे गन्तव्य पता होता तो उस तक पहुँचने का रास्ता भी मैं जान ही लेता ! जिस यात्री को गन्तव्य की सही जानकारी होती है वह अन्य राहगीरों से पूछ - पूछ कर वहाँ पहुँच ही जाता है । अतः मार्ग पूछने का मतलब यही है कि आप मन्तव्य बतायेंगे । मुक्त कहाँ जाता है इसका अज्ञान कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि कर्मफलरूप प्राप्तव्य को जान पाना भी अत्यन्त कठिन होता है । स्थूल शरीर से कौन निकलता है और निकलने पर किस स्वरूप वाला रहता है , कैसे निकलता है और कैसे भावी लोक , शरीर आदि तक जाता है ; मर कर फल क्या मिलता है ; ये सब इन्द्रियों से अतीत बाते हैं, इन्हें लौकिक लोगों में कौन जानता है । इसीलिये मैंने आपसे यह प्रश्न किया है । आप स्वयं महान् विद्वान् हैं और आपके श्रीगुरु सूर्यदेव सर्वज्ञ हैं इसमें क्या कहना ? इस लोक के और परलोक के बारे में आप सारी जानकारी रखते हैं । आप महात्मा हैं , सर्वत्र आत्मदर्शन करने से आप मेरे दुःख को समझते हैं और दयास्वभाव वाले होने से उसे दूर करने को उद्यत हैं । इसमें आप सफल भी होंगे ही क्योंकि आप भगवान् हैं , ऐश्वर्यशाली हैं । सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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