!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजन् ! " यह प्रमाणादि सारा भेद गन्धर्वनगर की तरह है , वादियों की कल्पना से ही इसकी सिद्धि है । पुरुष वेश धारण करने से स्त्रियों में जैसे पुरुषत्व नहीं आ जाता वैसे जो जहाँ किसी अपेक्षा से होता है वह वहाँ सचमुच नहीं रहा करता । " अपेक्षा " एक प्रकार का ज्ञान है और ज्ञान किसी अर्थ की सत्ता सिद्ध करने में अक्षम होता है क्यों रज्जुसर्प के ज्ञान में यह अक्षमता परखी जा चुकी है । यदि पूछो कि ज्ञान हो और वह अर्थसत्ता सिद्ध करने में अक्षम भी न हो अर्थात् सक्षम हो तो क्या हानि है ? इसका उत्तर है कि " नेह नानास्ति " आदि श्रुति प्रामाणित कर रही है कि अर्थसत्ता है नहीं अतः यदि ज्ञान इससे विरोध रखेगा तो उसका प्रामाण्य नहीं रहना ही उसकी हानि होगी ! श्रुति तो निश्चत प्रमाण है , अन्य ज्ञानों में प्रमाणता विचारणीय है अतः श्रुतिविरोध से उन्हीं का प्रामाण्य जाता रहेगा । रज्जुसर्पज्ञान से जैसे डरना, काँपना आदि व्यवहार हो जाता है ऐसे लौकिक सभी व्यवहार बिना किसी सत्य अर्थ के ग्रहण से हो इसमें कोई विरोध नहीं है । अन्य ज्ञानों का क्या करूँ ! श्रुति का भी कोई विषय नहीं है। जड तो मिथ्या होने से श्रुतितात्पर्य हो नहीं सकता और आत्मा स्वयम्प्रकाश होने से विषय हुआ ही नहीं करता। आत्मप्रबोधन के लिये स्थूल - सूक्ष्म जगत् के जन्मादि के प्रति कर्तृत्व आदि का आत्मा पर अध्यारोप कर उसके अपवाद की प्रक्रिया श्रुति अपनाती है । आवरण हटाने मात्र में श्रति का व्यापार है , आत्मा के प्रकाशन में है नहीं । इतने से ही आत्मा औपनिषद कहा - समझा जाता है। वह भी श्रुति का विषय हो यह बात नहीं । क्योंकि स्वयंप्रकाश है इसलिये वह स्वतः ही प्रकाशमान है , लोक या वेद में कहीं भी उसकी सिद्धि प्रमाण से हो यह सम्भव नहीं { संदिग्धादि हो तो प्रमाण की जरूरत भी पड़े । आत्मा तो सभी को हमेशा भास रहा है , अतः प्रमाण का कोई कृत्य नहीं ।}
किं च , प्रमाणादि यह सारा भेद प्रमाता की सिद्धि होने पर ही निर्णित हो सकता है । " मैं सही निश्चय कर रहा हूँ , यों जो अनुभव करता है उसे छोड़ दें तो प्रमाणादि यह भेद कहीं किसी को अनुभव में आता नहीं । प्रमाता भी जो उसका वास्तविक तत्त्व है उस स्वप्रकाश चेतन से ही सिद्ध है , और किसी से नहीं । यदि प्रमाता " मैं " इस ढंग के मानस ज्ञान से सिद्ध माना जाये , जैसा न्यायादिवादी बताते हैं , तो प्रश्न होगा कि जिस ज्ञान का वह विषय हो रहा है , वह ज्ञान उसी प्रमाता को है या किसी अन्य प्रमाता को ? ज्ञान होगा तो किसी न किसी चेतन को ही । यदि अन्य प्रमाता को पूर्वोक्त ज्ञाने माने तब " इसे जान रहा हूँ " यह बोध होगा न कि " स्वयं को जान रहा हूँ " , क्योंकि एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को " मैं " यों नहीं समझ सकता! और यदि प्रमाता - साधक " मैं " - ज्ञान उसी प्रमाता को होता है यह मानें तो कर्तृ - कर्मविरोध होगा , जानने का कर्ता और कर्म एक प्रमाता ही हो जायेगा जो न्यायी विचाकर स्वीकार नहीं सकते ।
"हे राजन ! " एकाग्रचित्त से सुनों गोतमानुयायी जडों से आत्मा का अन्तर बताने में भी असमर्थ हैं: मनःसंयोग से उत्पाद्य ज्ञानरूप गुण पाकर चेतना हुआ आत्मा जानता है , बिना मनः संयोग के वह ज्ञानरहित ही बना रहता है - यह न्यावेत्ता कहते हैं । उन्हें बताना चाहिये कि तब मनःसंयोग होने पर घट भी खुद को क्यों नहीं जान लेता ? स्वतः ज्ञानहीन जैसे आत्मा वैसे घट , तब इनमें अन्तर कैसे है ? मूर्त अर्थात् सीमित परिमाण वाला होना - यही आत्मा से घट में भेद यदि कहोगे तो आकाश ही आत्मा होने लगेगा क्योंकि वह अमूर्त ही है ! ज्ञान वाले आत्माओं में और आकाश में अन्तर नहीं बता पाओगे। यदि कहो ज्ञानवान् होने में शरीरसम्बन्ध हेतु बनता है तब भी फायदा नहीं क्योंकि आकाशादि विभु पदार्थों का भी शरीरसम्बन्ध है ही । इसी तरह मिलकियत - मालिक का सम्बन्ध , उपकार्य - उपकारक का सम्बन्ध इत्यादि को चेतन से निर्वाह्य कहना संगत नहीं होगा क्योंकि मनःसंयोग घटादि सर्वत्र सुलभ होने से कर्तृत्व - भोक्तूत्व भी वहाँ हो इसे कैसे रोका जाये ? तार्किक यह कह सकता है कि जो जहाँ दीखता है वही वहाँ हो सकता है ; कर्तृतादि का घटादि में प्रत्यक्षादि से दीखना होता नहीं , अतः उनमें कर्तृतादि मानना सम्भव नहीं जबकि आत्मा में कर्तृतादि दीखते हैं अतः उसमें मानने चाहिये और यही आत्मा तथा जड में अन्तर हो जायेगा । किन्तु न्यायी का यह कथन भी विचारसह नहीं । जिसे वह दीखना या दृष्टि कह रहा है वह क्या वस्तु है ? यदि दृष्टि आत्मा ही है तब तो उसने स्वमत छोड़कर वेदान्त ही स्वीकार किया ! यदि दृष्टि आत्मा नहीं बल्कि उसका धर्म { गुण } है तो समस्या है : धर्म धर्मी से भिन्न होता है ऐसा न्याय में मान्य है । धर्मरूप दृष्टि भले ही प्रकाशरूप हो , उसमें धर्मी का { ज्ञानस्वरूप न होने से जड कहलाने योग्य आत्मा का } भान कैसे होगा ? पुत्र की विद्वत्ता से पिता तो विद्वान् नहीं होता ! अतः " दीखने " के सहारे भी उक्त विभाजन सिद्ध नहीं हो सकता । आत्मा की सिद्धि के बिना सिर्फ ज्ञान तो सिद्ध हो नहीं सकता क्योंकि आश्रय असिद्ध रहते आश्रित सिद्ध नहीं हुआ करता । और यदि आत्मा सिद्ध हो ही गया तो " दृष्टि " का कोई प्रयोजन ही नहीं रहेगा ! आत्मसिद्धिरूप फल ही उसका प्रयोजन हो सकता था , आत्मा तो दृष्टिसिद्धि से पूर्व ही सिद्ध है तब दृष्टि का कोई फल नहीं रह गया । इतना ही नहीं , दृष्टि से अभिप्राय है प्रमाण से और प्रमाण को असिद्ध किया ही जा चुका है । तब प्राणरूप दृष्टि से आत्मा को कैसे सिद्ध करोगे । किं च दृष्टि प्रमाण किस तरह है : क्या प्रमा का कारण होने से प्रमाण कही जा रही या प्रमा होने से ही उसे प्रमाण कहा जा रहा है ? यदि प्रमा का कारण होने से दृष्टि को प्रमाण कहो तब जैसे दीपक प्रमाहेतु है, ऐसे ही वह भी होगी अतः अपने से जन्य ज्ञान से प्रमात्व का ग्रहण करने वाले अन्य प्रमाण की इसे ज़रूरत रहेगी , फलतः अनवस्था ही होगी। { प्रमाहेतु दीपक प्रमासापेक्ष है ऐसे प्रमाण भी होगा यह अर्थ है । } यों सभी प्रमाणों को अन्य प्रमाणों की आवश्यकता होने से अनवस्थादि दोष होंगे जो अस्वप्रकाशवादियों के लिये असमाधेय होंगे ।
हे राजन् ! यदि प्रमा ही प्रमाण { दृष्टि } हो तो भी क्या यह स्वयं भासमान है या भासती ही नहीं है ? वह भासे ही नहीं तब तो घटादि की तरह प्रमाण हो नहीं सकती । ऐसे ही किसी अन्य द्वारा प्रकाशित होने वाली हो तो भी घटतुल्य होने से अप्रमाण होगी । खुद ही खुद से प्रकाशित हो यह सम्भव नहीं क्योंकि संसार में ऐसा नहीं देखा जाता कि कोई पदार्थ ऐसे प्रकाश का कर्ता हो जिसका कर्म भी वह स्वयं हो । किं च दृष्टि को स्वयं भासने वाला मानें तब भी क्या वह जुगुनू की तरह सिर्फ खुद को प्रकाशित करती है या आदित्यादि की तरह सभी को प्रकाशित करती है ? प्रथम पक्ष मानो तो दृष्टि विषयों का ज्ञान नहीं करा पायेगी और दूसरा विकल्प मानो तो किसी भी एक अर्थ का ज्ञान होने पर सर्वज्ञता हो जानी चाहिये !
हे राजन ! पूर्वोक्त ढंग से विचार द्वारा निर्णीत है कि प्रमाण को ही परिभाषित नहीं किया जा सकता तो आत्मा प्रमाणग्राह्य नहीं इसमें क्या संदेह ! यदि चक्षु आदि को प्रमाण मान लें तो भी उनके संसर्ग के अयोग्य होने से आत्मा अग्राह्य रहेगा ही । घटादि के बारे में ज्ञान खुद - ब - खुद तो पैदा होगा नहीं वरन् चक्षु आदि प्रमाणों का घटादिसे संयोगादि सम्बन्ध होने पर घटादि का प्रत्यक्षादि ज्ञान हुआ करता है । आत्मा के बारे में न्यायी को जो यह ज्ञान हुआ कि आत्मा कर्ता - भोक्ता है यह हुआ कैसे ? आँखों का आत्मा से संयोग होकर यह ज्ञान हुआ हो यह असम्भव है , कारण कि भगवती श्रुति ने नियम बताया है कि इन्द्रियाँ पराग्विषयक ही हैं , अतः जहाँ इन्द्रियसंयोग होगा वहाँ पराक्ता { अप्रत्यक्ता , अनात्मता } अवश्य होनी पड़ेगी और पराक्ता न होने पर इन्द्रियसंयोग होगा ही नहीं ! मन तो प्रमाणाधीन रहकर ही वृत्ति बनाता है । स्वयं मन प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि तब अनुमिति आदि भी प्रत्यक्ष ही होने लगेंगे , कोई कोई नैयायिक मानता नहीं , अतः बिना किसी के प्रमाण के मन ने ही यह प्रमित कर लिया है कि आत्मा कर्ता - भोक्ता है , यह कसना असंगत हो जायेगा । बल्कि अगर नेत्रों के संयोग से यह आत्मज्ञान हो सके तब तो देहविषयक ज्ञान ही आत्मबोध हो जायेगा । तुम जैसों को देवगुर द्वारा प्रणीत " चार्वाक मत " ही स्वीकारना पड़ेगा । जैसे चार्वाक असुरों को मोह में डालने के लिये प्रणीत दर्शन है वैसा ही आत्मा को कर्ता - भोक्ता प्रत्यक्ष के बल पर मानने वाला दर्शन भी हो जायेगा । कर्ता - भोक्ता आत्मा में अनुमान भी हो नहीं सकता क्योंकि अनुमान प्रत्यक्ष के सहारे प्रवृत्त हो सकता है और जब आत्मगोचर प्रत्यक्ष नहीं तब उस पर टिकने वाला अनुमान कैसे आत्मा को विषय करे ? ।
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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