!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { ७ } ~~~
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नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि " हे राजन् ! " यदि कहा जाये कि वेद में आत्मा को द्रष्टा , श्रोता , मन्ता आदि कहा है जिससे पता चलता है कि वह दर्शनादि का कर्ता है तो वह कथन भी अधूरा वेद पढ़ने का फल होगा क्योंकि वेद में आत्मा को " अद्रष्टा " आदि भी तो कहा है । ऐसे ही " ज्ञानं ब्रह्म " आदि से उसे ज्ञानस्वरूप बताया है तथा अद्वैत में " देखने " का न कर्ता हो सकता है न कर्म यह भी स्पष्ट किया है । एवं च यही निश्चय युक्त है कि आत्मा के ज्ञान के लिए प्रमाणादि उपलब्ध नहीं हो सकते , वह स्वप्रकाश चिद्रूप भासता ही है जिसके लिये कोई सहारा नहीं चाहिये । विचारित प्रकार से जब किसी के लिये संसार में कोई प्रमाण नहीं तब यह सुतराम् दुर्लभ वस्तु आत्मा के लिये भी कैसे हो सकेगी ? अतः माता के समान हितोपदेष्टा वेद ने इसे अगृह्य अर्थात् अग्राह्य कहा है जिसे यथाश्रुत ही समझने का प्रयास करना चाहिये ।
सर्वरूप होने से आत्मा की शीर्णता भी नहीं हृ करती अर्थात् वह हनन - क्रिया का कर्म नहीं बन सकता । लोक में भी यही देखा गया है कि भेद वाली और मूर्ति वाली { घनीभूत अवयव वाली } वस्तु ही शीर्ण है जैसे वस्त्रादि । आत्मा भेद और और मूर्ति से रहित है अतः वह शीर्ण हो ही नहीं सकता । इसीसे प्रमाणभूत वेद ने उसे अशीर्य घोषित किया है ।
हे राजन् ! आत्मा में जैसे स्वाभाविक विकार नहीं ऐसे ही कोई आगन्तुक विकार भी है नहीं। लोक में जो संग वाले { सम्बन्ध वाले } पदार्थ होते हैं उन्हीं में कालवश संगेहेतुक विकारादि दोष आते हैं जैसे आग के संग से जल में विकार आते हैं । असंग में किसी तरह दोष हो यह देखा नहीं जाता जैसे नभ विशुद्ध है , असंग है तो बादल , बिजली आदि से उसमें कोई विकार नहीं आता । मूर्त और सीमित ही संगवान् देखा जाता है । आत्मा न मूर्त है न सीमित तो उसका संग होगा क्यों ? संग का दूसरा अर्थ है संयोगादि सम्बन्ध । संग का फल है थोड़ी देर के लिये उसकी तरह स्वरूप हो जाना जिसका संग मिला है , जैसे पानी थोड़ी देर के लिये आग जैसा गर्म हो जाता है । आत्मा सजाति , विजाति , स्वगत तीनों संभव भेदों से रहित है तो उसका संग कैसे होगा और संगफल भी कैसे हो सकेगा ? भिन्न कुछ हो तब संयोगादि या गौणता संभव हो , आत्मा से भिन्न है ही कुछ नहीं तो ये कैसे संगत हो सकते ! लोकदृष्ट यही है कि संग वाले ही संग से बंधन , विकार आदि फल पाते हैं और उनके उत्पादक आदि कारणों का वियोगादि होने से वे विनष्ट होते हैं , जैसे धागों का वियोग हो जाये तो कपड़ा नष्ट हो जाता है । यह विनाश कहीं अतिशीघ्र हो जाता है , कहीं धीरे - धीरे होता है । यह आत्मा क्योंकि संग वाला नहीं है इसलिये न कभी बँधता है , न नष्ट होता है ।
हे राजन् ! सभी विशेषताओं से रहिक , मन - वाणी की गिरफ्त में नहीं आने वाला " तुरीय आत्मतत्त्व " ही आपका गन्तव्य है । आप स्वयं वह सर्वरूप पुरुष हैं । { अभी तक इसे न जानकर क्लेश भोगते रहे , अब मैंने समझा दिया तो आपने उसे जान लिया और उसे जानना ही उसे प्राप्त करना है अतः आप तद्रूप हो चुके हैं । }
महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजेन्द्र ! " अब आप संसाररूप शूल से डरिये मत । जो सभी जन्तुओं का आनन्दरूप आत्मा ईश्वर है उस आत्मा को " यही मैं हूँ " यों अभेद से आपने हमेशा के लिये पा लिया है । सभी प्राणियों को दूसरे से डर लगता है । जब तक दूसरा जाना जा रहा है तब तक आत्मा का समग्र ज्ञान होता ही नहीं । सभी देहधारियों के लिये आत्मा प्रतिकूल नहीं होता और प्रतिकूल का अज्ञान होने पर डर उत्पन्न होता नहीं ।
प्रतिकूलता तभी हो सकती है जब दूसरापन हो , आत्मा में दूसरापन नहीं तो प्रतिकूलता भी नहीं , इसीलिये तुम ही अभय ब्रह्म हो , जो विज्ञान - आनन्द स्वरूप है और सारे भेदों से रहित है । मैं , तुम , सभी भूत , यह सारा सद् - असद्रूप जगत् एक निर्भय ब्रह्म ही है , अन्य कुछ नहीं । जैसे गन्धर्वनगर आकाश से अन्य नहीं ऐसे ही यह विश्व आत्मा से अन्य नहीं है । जैसे आकाश में गन्धर्वनगर माया से ही टिकता है , वैसे ही आत्मा में भी विश्व माया से ही टिका है । गगन में गन्धर्वनगर की तरह ही आत्मा में विश्व का तीनों कालों में अत्यन्ताभाव है । भ्रान्त बुद्धि वालों को जड - चेतनसमूहरूप और असद्विलक्षण गन्धर्वनगर गगन में दीखता है । इसी प्रकार भ्रान्ति ज्ञान से ही आत्मा में यह सारा ही युष्मदस्मत्प्रत्यगोचर विश्व प्रतीत होता है । सोया पुरुष रथादि साधनों से रहित होते हुए और उचित स्थान समय आदि से भी रहित हुए अकेले ही सारा विविध विश्व { सपने में } बन जाता है । ऐसे ही आत्मा सभी साधनों से रहित है और अकेले ही यह देश - कालादि रूप सारा जगत् बन जाता है । नींद से उठा हुआ जैसे सपने की दुनिया नहीं देखता , ऐसे ही आत्मविज्ञान होने पर आत्मा यह संसार नहीं देखता । गुरुदेव भगवान् शिष्य को सम्बोधित करते हुए कहते हैं - " हे सौम्य ! " याज्ञवल्क्य के उपर्युक्त उपदेश प्राप्त कर राजा जनक ने आशीर्वाद , नमस्कार और सर्वस्व ये तीन दक्षिणायें भेंट कीं। पहली दक्षिणा थी " आशीर्वाद " - " हे याज्ञवल्क्य ! अभय आपको प्राप्त होवे । " इसका अभिप्राय समझाते हैं : महर्षि याज्ञवल्क्य से अभय अद्वितीय तत्त्व सुनकर बुद्धिमान् राजा ने मन में विचार किया कि इस ज्ञानोपदेश के लायक कोई दक्षिणा है ही नहीं । उसने सोचा कि राज्य , सेना , पत्नी , पुत्र सहित स्वयं को याज्ञवल्क्य महर्षि के अर्पण करूँ तो भी आत्मज्ञान ही अधिक होगा , उसके समान वह दक्षिणा हो नहीं पायेगी । वेदवादी मानते हैं कि सागर - पर्यन्त सारी भूमि सभी धनों से भर कर दी जाये तो भी परमात्मविद्या के उपदेष्टा के अनुरूप वह दक्षिणा नहीं हो पाती। करोड़ों जन्मों तक ब्रह्मचर्यादि साधनों का अनुष्ठान करते रहने वाले देहधारियों के लिये भी दुर्लभ और स्वयं शास्त्र जिसकी प्राप्ति को लोकत्रय में सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं वह आत्मा इन्होंने मुझे कृपाकर प्राप्त करा दिया है तो मैं इन्हें इसके समान क्या दक्षिणा दे सकता हूँ ? मैं जो कुछ भी भेट करूँगा वह अनात्मा होगा , अतः इनके द्वारा दिये आत्मा के तुल्य हो ही नहीं सकता ! इन्द्रसमेत देवताओं को जीत कर त्रिलोक भी इन्हें दूँ तो भी मेरे इन गुरु के लिये उपयुक्त दक्षिणा नहीं हो पायेगी । इस तरह विचार कर जब राजा को अन्य कुछ दक्षिणा देने योग्य लगी नहीं तब कुछ नवीन बात समझ आने पर उन्होंने ससर्ष उन शान्त महामुनि याज्ञवल्क्य महर्षि से निवेदन किया ।
हे महर्षि याज्ञवल्क्य ! हम लोगों के शरीरों से बाहर प्रकाशने वाले होने पर भी जो हैं प्राणरूप ही वे "भगवान् आदित्य" आपके " आचार्य " हैं । देहधारी जिसे कष्ट से सहते हैं , वह आँखों को मानो बाँध देने वाला अँधेरा सूर्यदेव क्षणभर में मिटा देते हैं । उनके उपकारों के बदले में देही तो कुछ उन्हें अर्पित कर नहीं पाते , अतः यद्यपि सूर्यदेव हमेशा सभी तेजों के निधान हैं तथापि लोग उन्हें दीपक समर्पित करते हैं ! वे प्रभाकर भी इतने कृपालु हैं कि उतने से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । आप प्रकाश करने वाले भगवान् सूर्यदेव के शिष्य हैं और हैं भी उनके समान क्योंकि आन्तरिक अज्ञान अन्धकार के निवारक हैं । अभयरूप परब्रह्म के विज्ञान का आप मुक्तहस्त दान करते हैं और आप्तकाम होने से आपको कामना कोई है नहीं । इसलिये आप श्रीगुरु के लिये अनुरूप कोई और दक्षिणा तो मुझे समझ आ नहीं रही है । मैं आर्शिवादरूप यही दक्षिणा अर्पित कर रहा हूँ - स्थूल - सूक्ष्म - कारणरूप तीनों जगत् का बाध कर बचने वाला जो तुरीय ब्रह्म है , वही एक निर्भय वस्तु है जो आपने मुझे सुनाई । हे ब्रह्मदेव ! वही अभय आपको प्राप्त हो { आपके पास बना रहे } । जो आप मुझे दे रहे हैं वह सदा आपके पास रहे । { आशीर्वाद का अर्थ है आशा व्यक्त करना , जिसे आजकल " शुभकामना " कहते हैं । पूर्णकाम जगत् को तुच्छ जानता है , अतः उसे प्रसन्न करने के लिये जगत् का कुछ दिया - लिया नहीं जा सकता। किन्तु यावत्प्रारब्ध यह सम्भावना रहती है कि किसी तीव्रतम कर्मवश उसके अन्तःकरण में इकलौती ब्रह्मवृत्ति न रहे , अन्य भी कोई वृत्ति बननी आवश्यक हो जाये । राजा यहाँ यही शुभकामना कर रहा है कि ऐसा न हो ; जिस ब्रह्ममात्रचिन्तन में रहते हुए मुझे अभय दिलाया है उसी में आप बने रहें । अब्रह्मवृत्ति बनने से मुक्त को यद्यपि कोई कष्ट नहीं तथापि राजा ने तत्काल बोध पाया है , अतः अपनी स्थिति के अनुसार समझता है कि दुःख - पर्यन्त न सही , असुविधा - पर्यन्त तो बहिदृष्टि देगी ही , अतः कामना कर रहा है कि आपको ऐसी असुविधा न हो । मिथ्यात्वेन निश्चित भी बीभत्स दृश्यादि दीखने से उनका न दीखना बेहतर है - यह जब तक लगता है तब तक समाधि या तत्तुल्य कमनीय बनी ही रहती है , तदानुसार यह आर्शिवाद है । महर्षि याज्ञवल्क्य को यह अपेक्षित हो यह जरूरी नहीं । दाता जिसे सुखद समझता है वही भेंट करता है , ग्रहीता को उस पदार्थ से सुख भले ही न हो पर भेंटकर्ता की भावना से सन्तोष हो जाता है । प्रकृत में, राजा अनात्मा को तुच्छ निर्णीत कर चुका है , यह भी व्यक्त हो जाने से मुनि को यह संतोष भी होगा कि उनका दिया ज्ञान सत्पात्र में सफल हुआ है है । }
सावशेष ...
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि " हे राजन् ! " यदि कहा जाये कि वेद में आत्मा को द्रष्टा , श्रोता , मन्ता आदि कहा है जिससे पता चलता है कि वह दर्शनादि का कर्ता है तो वह कथन भी अधूरा वेद पढ़ने का फल होगा क्योंकि वेद में आत्मा को " अद्रष्टा " आदि भी तो कहा है । ऐसे ही " ज्ञानं ब्रह्म " आदि से उसे ज्ञानस्वरूप बताया है तथा अद्वैत में " देखने " का न कर्ता हो सकता है न कर्म यह भी स्पष्ट किया है । एवं च यही निश्चय युक्त है कि आत्मा के ज्ञान के लिए प्रमाणादि उपलब्ध नहीं हो सकते , वह स्वप्रकाश चिद्रूप भासता ही है जिसके लिये कोई सहारा नहीं चाहिये । विचारित प्रकार से जब किसी के लिये संसार में कोई प्रमाण नहीं तब यह सुतराम् दुर्लभ वस्तु आत्मा के लिये भी कैसे हो सकेगी ? अतः माता के समान हितोपदेष्टा वेद ने इसे अगृह्य अर्थात् अग्राह्य कहा है जिसे यथाश्रुत ही समझने का प्रयास करना चाहिये ।
सर्वरूप होने से आत्मा की शीर्णता भी नहीं हृ करती अर्थात् वह हनन - क्रिया का कर्म नहीं बन सकता । लोक में भी यही देखा गया है कि भेद वाली और मूर्ति वाली { घनीभूत अवयव वाली } वस्तु ही शीर्ण है जैसे वस्त्रादि । आत्मा भेद और और मूर्ति से रहित है अतः वह शीर्ण हो ही नहीं सकता । इसीसे प्रमाणभूत वेद ने उसे अशीर्य घोषित किया है ।
हे राजन् ! आत्मा में जैसे स्वाभाविक विकार नहीं ऐसे ही कोई आगन्तुक विकार भी है नहीं। लोक में जो संग वाले { सम्बन्ध वाले } पदार्थ होते हैं उन्हीं में कालवश संगेहेतुक विकारादि दोष आते हैं जैसे आग के संग से जल में विकार आते हैं । असंग में किसी तरह दोष हो यह देखा नहीं जाता जैसे नभ विशुद्ध है , असंग है तो बादल , बिजली आदि से उसमें कोई विकार नहीं आता । मूर्त और सीमित ही संगवान् देखा जाता है । आत्मा न मूर्त है न सीमित तो उसका संग होगा क्यों ? संग का दूसरा अर्थ है संयोगादि सम्बन्ध । संग का फल है थोड़ी देर के लिये उसकी तरह स्वरूप हो जाना जिसका संग मिला है , जैसे पानी थोड़ी देर के लिये आग जैसा गर्म हो जाता है । आत्मा सजाति , विजाति , स्वगत तीनों संभव भेदों से रहित है तो उसका संग कैसे होगा और संगफल भी कैसे हो सकेगा ? भिन्न कुछ हो तब संयोगादि या गौणता संभव हो , आत्मा से भिन्न है ही कुछ नहीं तो ये कैसे संगत हो सकते ! लोकदृष्ट यही है कि संग वाले ही संग से बंधन , विकार आदि फल पाते हैं और उनके उत्पादक आदि कारणों का वियोगादि होने से वे विनष्ट होते हैं , जैसे धागों का वियोग हो जाये तो कपड़ा नष्ट हो जाता है । यह विनाश कहीं अतिशीघ्र हो जाता है , कहीं धीरे - धीरे होता है । यह आत्मा क्योंकि संग वाला नहीं है इसलिये न कभी बँधता है , न नष्ट होता है ।
हे राजन् ! सभी विशेषताओं से रहिक , मन - वाणी की गिरफ्त में नहीं आने वाला " तुरीय आत्मतत्त्व " ही आपका गन्तव्य है । आप स्वयं वह सर्वरूप पुरुष हैं । { अभी तक इसे न जानकर क्लेश भोगते रहे , अब मैंने समझा दिया तो आपने उसे जान लिया और उसे जानना ही उसे प्राप्त करना है अतः आप तद्रूप हो चुके हैं । }
महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजेन्द्र ! " अब आप संसाररूप शूल से डरिये मत । जो सभी जन्तुओं का आनन्दरूप आत्मा ईश्वर है उस आत्मा को " यही मैं हूँ " यों अभेद से आपने हमेशा के लिये पा लिया है । सभी प्राणियों को दूसरे से डर लगता है । जब तक दूसरा जाना जा रहा है तब तक आत्मा का समग्र ज्ञान होता ही नहीं । सभी देहधारियों के लिये आत्मा प्रतिकूल नहीं होता और प्रतिकूल का अज्ञान होने पर डर उत्पन्न होता नहीं ।
प्रतिकूलता तभी हो सकती है जब दूसरापन हो , आत्मा में दूसरापन नहीं तो प्रतिकूलता भी नहीं , इसीलिये तुम ही अभय ब्रह्म हो , जो विज्ञान - आनन्द स्वरूप है और सारे भेदों से रहित है । मैं , तुम , सभी भूत , यह सारा सद् - असद्रूप जगत् एक निर्भय ब्रह्म ही है , अन्य कुछ नहीं । जैसे गन्धर्वनगर आकाश से अन्य नहीं ऐसे ही यह विश्व आत्मा से अन्य नहीं है । जैसे आकाश में गन्धर्वनगर माया से ही टिकता है , वैसे ही आत्मा में भी विश्व माया से ही टिका है । गगन में गन्धर्वनगर की तरह ही आत्मा में विश्व का तीनों कालों में अत्यन्ताभाव है । भ्रान्त बुद्धि वालों को जड - चेतनसमूहरूप और असद्विलक्षण गन्धर्वनगर गगन में दीखता है । इसी प्रकार भ्रान्ति ज्ञान से ही आत्मा में यह सारा ही युष्मदस्मत्प्रत्यगोचर विश्व प्रतीत होता है । सोया पुरुष रथादि साधनों से रहित होते हुए और उचित स्थान समय आदि से भी रहित हुए अकेले ही सारा विविध विश्व { सपने में } बन जाता है । ऐसे ही आत्मा सभी साधनों से रहित है और अकेले ही यह देश - कालादि रूप सारा जगत् बन जाता है । नींद से उठा हुआ जैसे सपने की दुनिया नहीं देखता , ऐसे ही आत्मविज्ञान होने पर आत्मा यह संसार नहीं देखता । गुरुदेव भगवान् शिष्य को सम्बोधित करते हुए कहते हैं - " हे सौम्य ! " याज्ञवल्क्य के उपर्युक्त उपदेश प्राप्त कर राजा जनक ने आशीर्वाद , नमस्कार और सर्वस्व ये तीन दक्षिणायें भेंट कीं। पहली दक्षिणा थी " आशीर्वाद " - " हे याज्ञवल्क्य ! अभय आपको प्राप्त होवे । " इसका अभिप्राय समझाते हैं : महर्षि याज्ञवल्क्य से अभय अद्वितीय तत्त्व सुनकर बुद्धिमान् राजा ने मन में विचार किया कि इस ज्ञानोपदेश के लायक कोई दक्षिणा है ही नहीं । उसने सोचा कि राज्य , सेना , पत्नी , पुत्र सहित स्वयं को याज्ञवल्क्य महर्षि के अर्पण करूँ तो भी आत्मज्ञान ही अधिक होगा , उसके समान वह दक्षिणा हो नहीं पायेगी । वेदवादी मानते हैं कि सागर - पर्यन्त सारी भूमि सभी धनों से भर कर दी जाये तो भी परमात्मविद्या के उपदेष्टा के अनुरूप वह दक्षिणा नहीं हो पाती। करोड़ों जन्मों तक ब्रह्मचर्यादि साधनों का अनुष्ठान करते रहने वाले देहधारियों के लिये भी दुर्लभ और स्वयं शास्त्र जिसकी प्राप्ति को लोकत्रय में सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं वह आत्मा इन्होंने मुझे कृपाकर प्राप्त करा दिया है तो मैं इन्हें इसके समान क्या दक्षिणा दे सकता हूँ ? मैं जो कुछ भी भेट करूँगा वह अनात्मा होगा , अतः इनके द्वारा दिये आत्मा के तुल्य हो ही नहीं सकता ! इन्द्रसमेत देवताओं को जीत कर त्रिलोक भी इन्हें दूँ तो भी मेरे इन गुरु के लिये उपयुक्त दक्षिणा नहीं हो पायेगी । इस तरह विचार कर जब राजा को अन्य कुछ दक्षिणा देने योग्य लगी नहीं तब कुछ नवीन बात समझ आने पर उन्होंने ससर्ष उन शान्त महामुनि याज्ञवल्क्य महर्षि से निवेदन किया ।
हे महर्षि याज्ञवल्क्य ! हम लोगों के शरीरों से बाहर प्रकाशने वाले होने पर भी जो हैं प्राणरूप ही वे "भगवान् आदित्य" आपके " आचार्य " हैं । देहधारी जिसे कष्ट से सहते हैं , वह आँखों को मानो बाँध देने वाला अँधेरा सूर्यदेव क्षणभर में मिटा देते हैं । उनके उपकारों के बदले में देही तो कुछ उन्हें अर्पित कर नहीं पाते , अतः यद्यपि सूर्यदेव हमेशा सभी तेजों के निधान हैं तथापि लोग उन्हें दीपक समर्पित करते हैं ! वे प्रभाकर भी इतने कृपालु हैं कि उतने से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । आप प्रकाश करने वाले भगवान् सूर्यदेव के शिष्य हैं और हैं भी उनके समान क्योंकि आन्तरिक अज्ञान अन्धकार के निवारक हैं । अभयरूप परब्रह्म के विज्ञान का आप मुक्तहस्त दान करते हैं और आप्तकाम होने से आपको कामना कोई है नहीं । इसलिये आप श्रीगुरु के लिये अनुरूप कोई और दक्षिणा तो मुझे समझ आ नहीं रही है । मैं आर्शिवादरूप यही दक्षिणा अर्पित कर रहा हूँ - स्थूल - सूक्ष्म - कारणरूप तीनों जगत् का बाध कर बचने वाला जो तुरीय ब्रह्म है , वही एक निर्भय वस्तु है जो आपने मुझे सुनाई । हे ब्रह्मदेव ! वही अभय आपको प्राप्त हो { आपके पास बना रहे } । जो आप मुझे दे रहे हैं वह सदा आपके पास रहे । { आशीर्वाद का अर्थ है आशा व्यक्त करना , जिसे आजकल " शुभकामना " कहते हैं । पूर्णकाम जगत् को तुच्छ जानता है , अतः उसे प्रसन्न करने के लिये जगत् का कुछ दिया - लिया नहीं जा सकता। किन्तु यावत्प्रारब्ध यह सम्भावना रहती है कि किसी तीव्रतम कर्मवश उसके अन्तःकरण में इकलौती ब्रह्मवृत्ति न रहे , अन्य भी कोई वृत्ति बननी आवश्यक हो जाये । राजा यहाँ यही शुभकामना कर रहा है कि ऐसा न हो ; जिस ब्रह्ममात्रचिन्तन में रहते हुए मुझे अभय दिलाया है उसी में आप बने रहें । अब्रह्मवृत्ति बनने से मुक्त को यद्यपि कोई कष्ट नहीं तथापि राजा ने तत्काल बोध पाया है , अतः अपनी स्थिति के अनुसार समझता है कि दुःख - पर्यन्त न सही , असुविधा - पर्यन्त तो बहिदृष्टि देगी ही , अतः कामना कर रहा है कि आपको ऐसी असुविधा न हो । मिथ्यात्वेन निश्चित भी बीभत्स दृश्यादि दीखने से उनका न दीखना बेहतर है - यह जब तक लगता है तब तक समाधि या तत्तुल्य कमनीय बनी ही रहती है , तदानुसार यह आर्शिवाद है । महर्षि याज्ञवल्क्य को यह अपेक्षित हो यह जरूरी नहीं । दाता जिसे सुखद समझता है वही भेंट करता है , ग्रहीता को उस पदार्थ से सुख भले ही न हो पर भेंटकर्ता की भावना से सन्तोष हो जाता है । प्रकृत में, राजा अनात्मा को तुच्छ निर्णीत कर चुका है , यह भी व्यक्त हो जाने से मुनि को यह संतोष भी होगा कि उनका दिया ज्ञान सत्पात्र में सफल हुआ है है । }
सावशेष ...
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