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!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { ८ } ~~~
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नारायण ! गुरुदेव भगवान् अपने अन्तेवासी शिष्य से कहते है कि " हे सौम्य ! " अनाम को नाम से संयुक्त करके बताता हूँ कि महर्षि याज्ञवल्क्य को सम्बोधित करते हुए महाराज जनक आगे कहते हैं कि –
हे ब्राह्मण देव ! अविद्या से चेतन का सम्बन्धरूप जो काल है उसने अज्ञानरूप धागों में काम - क्रोधादि गाँठे लगाकर विपर्यरूप पाशजाल फैला रखा था ताकि जन्तुरूप पक्षियों को उसमें फँसा कर मारता रह सके । काल के पाशों को कौन नहीं जानता कि वे कितने पीडाकर हैं ! मैं उनमें फँसकर घोर दुःख में डूबा हुआ था , मेरी मति मारी गयी थी । आपने मुझे उन पाशों से सद्यः छुड़ा दिया ! आप असीम दयाशील हैं । आपके योग्य दक्षिणा मैं क्या अर्पित कर सकता हूँ ।
हे सौम्य ! इस प्रकार प्रथम दक्षिणा { आशीर्वाद } के बाद सर्वदान रूप द्वितीय दक्षिणा अर्पित की और कहा –
"हे ब्रह्मण !" मिथिलापुरी समेत यह सारा विदेह राज्य सुसम्पन्न और मेरी आज्ञानुसार चलने वाला है । पत्नी , पुत्र , कर्मचारी और देश इन सब के साथ मैं आप का सेवक हूँ । ब्रह्म से आत्मा अभिन्न है इसके प्रतिपादक श्रीगुरु के निर्देश में ही मैं रहने वाला हूँ । यह सब भी धर्मानुसार तो आपका ही है अतः " यह मैंने आपको दिया " यों मैं कह भी नहीं सकता । { श्रुतियों ने बताया है कि ब्रह्मज्ञानदाता पिता होते हैं और " स्मृतियों " में कहा है कि पुत्र जो अर्जित करे उस पर पिता की ही मिलकियत होती है , अतः गुरु होने से पिता होने के नाते ये राज्यादि आपके ही हैं , मेरी इन पर मिलकियत ही नहीं कि मैं इन्हें आपको अर्पित करूँ । } " हे ब्रह्मन् ! " आपकी आज्ञा के बिना तो मैं स्वयं खा भी नहीं सकता तो आपको कुछ दे सकूँ यह सम्भव कैसे है ? ।
हे सौम्य ! राजा ने तृतिय दक्षिणा दी प्रणामरूप : आदित्यशिष्य , स्वयं परमात्मरूप , मुनियों में अग्रगण्य , ब्रह्मबोधक , गुरु याज्ञवल्क्य को प्रणाम है ।
हे सौम्य ! श्रुति में आशीर्वाद , नमस्कार और सर्वस्व - इस क्रम से अर्पण का विधान है । याज्ञवल्क्य स्थितप्रज्ञ होने से उनके लिये आशीर्वाद अयुक्त है और सर्वस्व तो दृश्यकोटि का होने से अयूक्त है ही , अतः इन दो के अनन्तर जो संगत और किया जा सकता है वह प्रणाम अन्त में अर्पित होना चाहिये । यह हमने समिक्षा किया है ।
हे सौम्य ! राजा जनक द्वारा यों निवेदन करने पर मुनिश्वर याज्ञवल्क्य ने हास्य अर्थात मुस्कुराते हुए } सारी भेंट स्वीकार ली और बोले –
" महाराज ! नरेशश्रेष्ठ ! " तुम्हारे देशसहित तुम्हारा शरीरादि सब मेरा ही है इसमें कोई संशय नहीं ! किन्तु तुम ख्याल रखना कि उपासना में और राज्यव्यवस्था में लगे रहने से मैंने जो "अद्वैत आत्मा" समझाया उसे समय बीतने पर भूल मत जाना । मेरे लिये उत्तम दक्षिणा यही है , और कोई नहीं , कि मैंने जो कहा उसे किसी हालत में भूलना मत । यह राज्यादि सब मेरा है तथापि मेरे सेवकरूप तुम्हारी देख - रेख में यह सभी बना रहे । राजन् ! अभी तो मैं जाता हूँ , फिर कभी समय होने पर आऊँगा।

हे सौम्य ! सब त्रैवर्णिकों समेत राजा ने मुनिश्वर जी को रुकने की बहुत प्रार्थना करी लेकिन एकान्तवास के प्रति अधिक उत्सुक होने से महर्षि अपने घर की ओर लौट गये ।
अभयोपदेश के बाद कालान्तर में महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला आये तो यद्यपि विशेष विवक्षु नहीं थे तथापि राजा ने उस पूर्वप्राप्त वर के आधार पर उनसे " ज्योकिरात्मक परमेश्वर " के बारे में प्रवचन सुनाया ।
हे सौम्य ! ध्यान देना मुनिराज याज्ञवल्क्य जब अपने आश्रम को लौट गये तब राजा जनक उनकी आज्ञा का पालन करते हुए हुए शासनादि में लगा । समय बीतने पर राज्यव्यवस्था में अधिकाधिक व्यग्रता आ गयी । वह उस उपासना में निपुण और उसके अनुष्ठान में तत्पर था ही जिसमें अग्निहोत्र - देवता के वैश्वानरादि नामक पर रूप को अपने से अभिन्न कर समझा जाता है । इस सब के चलते मुनि याज्ञवल्क्य द्वारा जो उपदेश दिया गया था उसे राजा भूल गया !
हे सौम्य ! याज्ञवल्क्य महर्षि को लोगों से और अपनी दिव्य दृष्टि से राजा जनक की स्थिति का पता चला तो वे मिथिलापुरी पुनः पधारे और सभास्थित राजा के पास गये । उन्होंने मन में निश्चय कर लिया था कि " मैं राजा से अपने आगमन के प्रयोजनादि के विषय में कुछ नहीं कहूँगा । इससे बात करूँगा तो पूर्वोक्त ब्रह्म की ही चर्चा करूँगा , अन्य किसी की नहीं। { श्रुति में आये अक्षरों का एक सम्बन्ध है " स , मेने , न वदिष्ये " और दूसरा है " सम् , एनेन , वदिष्ये " । दोनों का एकत्र समावेश है कि " या तो कुछ बोलूँगा नहीं और अगर बोलना पड़ा तो परब्रह्म की ही चर्चा करूँगा । " आगमनहेतु , योग - क्षेम आदि का प्रकाशन नहीं करूँगा , ब्रह्मविषयक संवाद करूँगा । } इस संकल्पपूर्वक वे अतिधार्मिक राजा के पास स्वयं गये । उस समय राजा सभा में विचारकुशल त्रैवर्णिक सज्जनों से घिरा था । वहाँ जनक के पास नाना प्रकार की चर्चायें चल रही थीं , जिसमें ब्राह्मणों ने " वैश्वानरविद्या " का प्रसंग भी छेड़ दिया । राजा उस उपासना में निष्णात था, अतः सभास्थित सभी उत्तम ब्राह्मणों से बोला - " आहुति - धार को विषय करने वाली , बहुत तरह के फलों वाली , मुख्यतः ब्रह्मलोकरूप फल देना वाली इस सारी विद्या को मैं जानता हूँ । { आहुतियों का धार है अन्तरिक्षादिलोकों का परिपोषण । } इस सभा में उपस्थित जो कोई त्रैवर्णिक इस बारे में जानकारी रखता हो वह मुझसे कुछ पूछ ले , या मैं पूछता हूँ , मेरे उत्तर देवे ! " इस घोषणा पर सभास्थ त्रैवर्णिक न कुछ पूछ सके , न उत्तर ही दे सके । सभी चुप रहे तो एक मुनिश्वर याज्ञवल्क्य ही थे जिन्होंने उचित मौका देखकर अपना न बोलने का संकल्प छोड़ दिया और विविध प्रश्नों से " वैश्वानरविद्या " के बारे में राजा जनक से पूछा , जिस सबका उत्तर राजा ने भी दे दिया । राजा की उस बुद्धिकुशलता को देख प्रसन्न हुए मुनिवर्य याज्ञवल्क्य ने भी राजा से अभिष्टतम वर माँगने को कहा ।
हे सौम्य ! बुद्धिमानों में अग्रगण्य राजा ने भी कृतकृत्य होकर बहुतेरे प्रश्न पूछने की अनुमति ही अभीष्ट वर रूप में माँगी । राजा की इसमें यह अभिसंधि थी । बताता हूँ : इन महात्मा ने पहले मुझे आत्मज्ञान का उपदेश दिया था । अत्यन्त अल्प मेधा वाला और पाप से आवृत मति वाला होने से मैंने वह ज्ञान भुला दिया ! यह मुझसे महान् अपराध हुआ है , जिसका प्रायश्चित दुष्कर है । किंतु भाग्यवश मूझे वह अपराध छिपाने का यह उपाय सुलभ हो गया है । मेरे पास नाना प्रकार का धन और विभिन्न विद्यायें उपस्थित हैं । जिसे मैं अब भूल चुका हूँ वह आत्मज्ञान मेरे पास नहीं है । यथेष्ट प्रश्न रूप वर द्वारा मैं उसे पुनः प्राप्त कर लूँगा । सौभाग्य से ही ये गुरु महाशय मुझ पर सन्तुष्ट हुए हैं । अपने शिष्य राजा द्वारा यथेष्ट प्रश्न की अनुमति रूप वर माँगने पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी तुरन्त वह वर प्रदान किया क्योंकि वह उनकी इच्छा के अनुकूल ही था । याज्ञवल्क्य महर्षि राजा को आत्मबोध याद दिलाने ही आये थे , अन्य किसी कार्य से नहीं । उन्होंने जब यथेष्ट पूछने की अनुमति दे दी तब प्रसन्नचित्त राजा ने महामुनि से प्रश्न पूछने से पूर्व विचार किया : यद्यपि ये श्रेष्ठ मुनि स्वभाव से शीतल , शान्त , हैं तथापि प्रश्न रूप मंथन से क्षुब्ध होकर ये मुझे कदाचित् वही रास्ता दिखा सकते थे जो इन्होंने " विदग्ध शाकल्य " को दिखा दिया था ! अब वर मिल जाने से मुझ दुर्बुद्धि को वह भय नहीं रहा । मैं तरह - तरह के प्रश्न पूछता हूँ जिनमें पुनरुक्ति आदि दोष होते हैं और आपसी सम्बन्ध भी युक्तियुक्त नहीं होता , अतः महर्षि को क्रोध आ सकता है । { जिससे मैं अब " वरकवच " से सुरक्षित हो गया हूँ } सावशेष .....
नारायण स्मृतिः

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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं – हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश...

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