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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १३ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १३ } ~~~
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नारायण ! मुनि कहते हैं कि " हे राजन् ! " सपने में नाना मन उत्पन्न होते हैं , इसके लिये जैसे व्यावहारिक मन की ज़रूरत है क्या ऐसे ही व्यावहारिक मन बने इसके लिये किसी पारमार्थिक मन की ज़रूरत है ? नहीं है । इस बात को दृष्टान्त देकर समझा देते हैं - प्राचीन काल में , " राजा पृथु " ने पृथ्वी दुही उससे पहले , लोक में सभी बीज नष्ट हो गये थे । तब राजा पृथु की प्रेरणा से बीजरहित धरती ही बीजकरण बन गयी थी , उसने बीज पैदा कर दिये थे । { यह कथा श्रीविष्णुपुराण में विस्तार से आयी है । } इसी प्रकार जो भगवान् ईश आत्मा अपनी वास्तविकता के अशंक्य अनुभव से वंचित है , वह है मनरहित, क्योंकि गहरी नींद , प्रळ आदि में वह मनस्वी रूप से भासता नहीं , किन्तु वह मन का भी कारण बन जाता है । { दृष्टान्त में पृथ्वी ने बीज स्वयं में छिपा लिये थे । दार्ष्टान्त में भी मन अविद्या में लीन रहता है तभी उससे उत्पन्न हो जाता है । अर्थात् व्यावहारिक मन की उत्पत्ति में कोई पारमार्थिक मन नहीं चाहिये । व्यावहारिक मन ही अपनी कारणदशा में रहता है और " मैं अज्ञानी हूँ " यों जो आत्मा में अध्यास है उसी से ईक्षणादि क्रम से मन कार्यदशा में व्यक्त हो जाता है । न केवल मन वरन् सारे प्रपञ्च के बारे में भी यही बात है : प्रातीतिक साँप दीखता है क्योंकि व्यायारिक साँप देखा - सुना गया है तो क्या व्यावहारिक के लिये पारमार्थिक देखना - सुनना पड़ेगा ? नहीं पड़ेगा! क्योँकि व्यावहारिक तो स्वयं ही कभी छिप जाता है , कभी प्रकट हो जाता है । प्रातिभासिक को भी ऐसा ही मानें तो क्या हर्ज़ ? कोई हर्ज़ नहीं लेकिन प्रायः लोक में ऐसा मानते नहीं । इसलिये व्यावहारिक - प्रातिभासिक का भेद करके व्यवस्था बनाई है । दृष्टिसृष्टि के अनुसार तो व्यावहारिक भी उसी तरह है जैसे प्रातिभासिक । अचिन्त्यशक्ति माया से सभी उपपन्न है , अतः पहले न होने वाले पदार्थ उत्पन्न कैसे होंगे - यह शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि जैसे उत्पन्न हुए पदार्थ मिथ्या हैं वैसे ही उनका कारण माया भी । " नहीं है " से " है " की स्थिति में कुछ नहीं आया ; जैसे स्वाप्न पिता - पुत्र में कार्यकारणता लगती है जबकि उनमें वह है नहीं , ऐसे ही सर्वत्र समझना चाहिये । किन्तु प्रकृत में इतना ही विवक्षित है कि जैसे सुषुप्ति में मनोरहित आत्मा रहता है जिससे पुनः जाग्रदादि में मन आ जाता है ऐसे ही प्रलयान्तर भी मन आत्मा से उत्पन्न हो गया , इसके लिये किसी अन्य मन की ज़रूरत नहीं पड़ी । } जैसे बीजयुक्त धरती से पुनः बीज निकल आये ऐसे प्रलयादि में आत्मा भी प्रपञ्चयुक्त ही रहता होगा , एवं च प्रपञ्च भी सनातन होगा ? - इस शंका को मिटाते हैं - जैसे बादल आदि से रहित शुद्ध आकाश ही बादलादि के जन्म - स्थिति - नाश का कारण बन जाता है , वैसे ही अव्याकृत कहलाने वाला परमेश्वर मन आदि संसार से रहित होने पर भी उसका कारण बन जाता है । { जैसे आकाश में यह सामर्थ्य माननी पड़ती है कि बिना मेघादि वाला हुआ ही वह अचानक मेघादियुक्त हो जाता है , वैसे ही आत्मा में भी सामर्थ्य मानी जाती है जिसे अज्ञान कहते हैं । " अव्याकृत " कहना तो चाहिये अज्ञान को लेकिन क्योंकि उससे विशिष्ट हुआ आत्मा ही जगत्कारण होता है इसलिये आत्मा भी अव्याकृत कह दिया जाता है । अपने स्वरूप की जानकारी न रह जाने पर राजा किसी दुरदृष्टवश सपने आदि में भीखारी बन जाता है और भिखारी अनुकूल प्रारब्धवश राजा बन जाता है , रस्सी में साँप किसी भी तरह है नहीं लेकिन साँप की उत्पत्ति - स्थिति - समाप्ति होती रस्सी में ही है । यह सब लोक में प्रसिद्ध ही है । ऐसे ही आनन्दरूप यह अद्वैत पुरुष आत्मा के अज्ञान के कारण स्थूल - सूक्ष्म यह सारा प्रपञ्च बना बैठा है । अजर - अमर आत्मा जैसे सपने में जन्मता - मरता है ऐसे ही जाग्रत् में भी जन्म- मरण पाता है । इसमें हेतु सिर्फ अज्ञान है । जन्म - मरण वास्तविक नहीं जैसे सपने में अनुभूयमान जन्मादि वास्विक नही ।
हे सौम्य ! महर्षि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को अब तक यह बताया कि आत्मा मूलाज्ञानरूप उपाधि से युक्त हुआ ईश्वर है जिससे मन उत्पन्न होता है जो अविद्या { अभिमान } , कामना और कर्मों की सहायता से सारे सांसारिक अनुभव आत्मा को करता रहता है । अब बताते है कि वह स्वयं तो चेतन आत्मा से प्रकाशित होता है , अतः वस्तुतः जड है । - जाग्रद् अवस्था में यह अनुभूत तथ्य है कि घट आदि दृश्यों द्वारा उन्हें देखने वाला द्रष्टा उनसे प्रकाशित नहीं होता , उनका दृश्य नहीं बनता । ऐसे ही सपने में मन दृश्यों के आकार में रहता है , द्रष्टा को प्रकाशित नहीं करता बल्कि उसी से प्रकाशित होता है । खुद मन ज्ञान वाला नहीं है । "शाक्ल्य ब्राह्मण " आदि कुछ स्थलों पर शास्त्र ने मन को " ज्योति " कहा है लेकिन इस अभिप्राय से नहीं कि वह आत्मा को प्रकाशित करता है । वरन् इस अभिप्राय से कि आत्मा जब अपने से अन्य पदार्थों का भान करता है तब मन उसका सहायक बनता है । जैसे सर्वानुभूत है कि घटादि के चाक्षुष ज्ञान में आँखें " ज्योति" बनती हैं , उनका विशेष उपकार है , ऐसे ही मूर्त - अर्मूत विषयों के ज्ञानों में मन हेतु बनता है , अतः उसे ज्योति कह दिया है। वह वृत्ति द्वारा विषय का आत्मा से सम्बन्ध स्थापित करता है इसी से उसे ज्योति कहते हैं न कि यह मानकर कि वह स्वयं ज्ञान या ज्ञान वाला है। अनिर्वचनीय सभी योग्य बाह्य पदार्थों को यह आत्मा जैसे इन्द्रियों द्वारा जानता है , इन्द्रियों को और उनकी पहुँच से बाहर के विषयों को मन द्वारा जानता है , उसी प्रकार मन और उसके विषयों को भी यह आत्मा ही जानता है । { यदि मनःस्थानीय कुछ द्वार चाहिये हो तो अविद्यावृत्ति समझ लेनी चाहिये । वस्तुतस्तु जहाँ द्वार का अनुभव न हो , ऐसा न लगे कि " अमुक से जान रहा हूँ " वहाँ द्वार की कल्पना व्यर्थ है क्योंकि स्वप्रकाश को परप्रकाशनार्थ माध्यम की अनिवार्यता अप्रामाणिक है । } मन का कारण है निजात्मा का अज्ञान । उसमें नाम - रूप - कर्म छिपे रहते हैं । स्वयं अज्ञान आत्मा पर ही टिका है । उस अज्ञान को ही जब आत्मा प्रकाशित करता है तब मन को वह प्रकाशित करे इसमें कहना ही क्या ! इस तरह निश्चित हुआ कि इन्द्रिय , मन , तारे , मणियाँ , स्वर्णादि अन्य तैजस पदार्थ , सभी रत्नादि , सूर्य , चन्द्र , वह्नि - जो कुछ भी प्रकाशक रूप से प्रसिद्ध है वह सभी चेतनरूप भान का विषय ही है क्योंकि अनिर्वचनीय होने से वह अचेतन है जिससे पता चलता है कि वह अज्ञान का कार्य है । एवं च घट आदि की तरह ये और ऐसे सभी पदार्थ आत्मा के भास्य ही हैं ।
हे सौम्य ! महर्षि श्री याज्ञावल्क्य कहते हैं कि हे राजन् ! ज्ञान से भिन्न जो कोई भी ज्ञानकारण हैं वे जड हैं - ये सभी विचारक मानते हैं , एक " बृहस्पति " के शिष्यों को छोड़कर ! अब ज्ञान के स्वरूप पर विचार करना चाहिये। { ज्ञान के हेतु बनते हैं विषय , इन्द्रिय आदि जिन्हें सभी लोग ज्ञान या ज्ञान वाला नहीं मानते । चार्वाक ही विषयादि को महाभूतरूप होने से चेतन मान सकते हैं क्योंकि वे भूतों को चेतन माना करते हैं किन्त चार्वाक मत विचारशीलों के लिये अत्यन्त हेय है क्योंकि वह युक्ति - प्रमाण दोनों से रहित है । अतः उस पर यहाँ चर्चा नहीं करते । बाकी सब वादी एकमत हैं कि विषयादि जड हैं । ज्ञान के हेतु दो तरह के होते हैं : ज्ञानरूप और ज्ञानभिन्नरूप । कभी तो एक ज्ञान किसी दूसरे ज्ञान के प्रति कारण बनता है जैसे व्याप्तिज्ञान कारण बनता है अनुमिति ज्ञान का । और कभी जो ज्ञानकारण बने हैं वे ज्ञानभिन्न होते हैं जैसे विषय , इन्द्रिय आदि । इनमें जो ज्ञानरूप ज्ञानकारण हैं उन्हें सब वादी जड मानते हों ऐसा तो है नहीं क्योंकि जड से मतलब होता है ज्ञानभिन्न तब उन्हें जड नहीं माना जाता । इसलिये स्पष्ट है कि ज्ञानरूप कारणों से अतिरिक्त जो कारण हैं उन्हें मानने में एकमत्य हैं । इस प्रकार उन कारणों की परीक्षा की जरूरत नहीं । अब ज्ञानों की परीक्षणा करेंगे क्योंकि ज्ञान यदि स्वप्रकाश सिद्ध हुए तो वे ही श्रुतिप्रसिद्ध आत्मा होंगे और यदि वे अन्य द्वारा प्रकाशित होने वाले होंगे तो उनका प्रकाशक आत्मा निश्चित हो जायेगा । इसी अभिप्राय से बोध के बारे में आगे का विचार प्रारम्भ करेंगे । सावशेष .....
नारायण स्मृतिः

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!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं – हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश...

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