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: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १९ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!

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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १९ } ~~~

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नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजन् ! " यदि मन को अनात्मा मानकर भी उसे चेतन कहो तो बताओ कि यह सभी कुछ जो अनात्मा है वह चेतन क्यों नहीं हो जायेगा ! भूत , भौतिक अर्थात् घटादि और मन - सभी में जब चैतन्य मानोगे , क्योंकि अनात्मा सभी हैं , तब मन का कार्य क्या रह जायेगा ? भूतादि के समान न भी चेतन हो तो जैसे एक दीपक को अन्य दीपक की ज़रूरत नहीं पड़ती वैसे ही भूतादि को मन की जरूरत नहीं होगी । { और मन घटादि की तरह निर्विवाद पदार्थ तो है नहीं ; क्रमिक ज्ञान कराने वाले आदि रूप से उसे सिद्ध करते हैं। जब घटादि स्वतः चेतन हैं तब उनके ज्ञान के लिये मन चाहिये ही नहीं तो मन नामक वस्तु ही " है " ऐसा नहीं माना जा सकता । } हमारे अनुभव का कोई प्रमाण इस बात में है नहीं कि सभी कुछ चेतन है । यदि कहो कि " आत्मा सर्वरूप है " आदि आगम इसमें प्रमाण है ; तो विचारणीय है कि यों बताने वाला आगम वाक्य अनुवादरूप है या विधिरूप ? अनुवाद तब होता जब इस बात में प्रत्यक्षादि कोई अन्य प्रमाण होता । वैसा कोई प्रमाण है नहीं , अतः उक्तविध आगम अनुवाद होकर सर्वचैतन्य का साधक नहीं हो सकता । सब को चेतन कहने वाला आगम विधायकविधया प्रमाण हो यह भी संभव नहीं । शास्त्र का तात्पर्य उसमें होता है जो सफल , अनधिगत और अबाधित हो ; ऐसे विषय का प्रतिपादक वाक्य विधायकविधया प्रमाण होता है । " सब आत्मा है " आदि वाक्य से सफल अबाह्य अर्थ समझा जा सके तो प्रतीति - युक्ति से विरुद्ध अर्थ उसमें क्योंकर समझा जायेगा ? उक्तविध वाक्यों का अभिप्राय होता है कि जो सब विविध दीख रहे हैं वे वस्तुतः है नहीँ , वास्तविक केवल आत्मा है । इस बात को और सुस्पष्ट कर देते हैं - आगम विधान करता है सर्वता का , आत्मता का और बोध { चेतनता } का । जैसे सर्पभ्रम के लिये रज्जुज्ञान कराया जाता है ऐसे आगम जगद् भ्रम मिटाने के लिये सत्य का उद्घाटन करता है । चार ढंगो के वाक्य शास्त्र में मिलेंगे :

{ 1 } . " यह जगत् सर्व अर्थात् अद्वितीयस्वरूप ब्रह्म है " । इस ढंग के वाक्य तत्पदार्थ { ईश्वर } का शोधन करने में तात्पर्य रखते हैं ।

{ 2 } . " चराचर समेत यह सब चेतन है " । इस प्रकार का वाक्य तत्पदार्थ की चिद्रूपता बताते हैं ।
{ 3 } . " आत्मा है " । इस तरह के वचन त्वंपदार्थ { जीव } के शोधक हैं क्योंकि उसे सर्वान्तर बताने में तात्पर्य रखते हैं । 

{ 4 } . " जो परम है वह आत्मा है । " इस तरह के वाक्य महावाक्य कहलाते हैं क्योंकि परम अर्थात् तत्पदार्थ का आत्मा अर्थात् त्वंपदार्थ से अभेद बताते हैं । 

{ वादी जो भी वाक्य सारे जगत् की चेतनता सिद्ध करने के लिये उद्धृत करेगा वह इनमें से ही किसी ढंग का होगा , अतः उसका अर्थ या पदार्थ होगा या महावाक्यार्थ । वादीसंमत अनात्मा की चेतनता तो किसी वाक्य का अभिप्रेतार्थ होगा नहीं यह तात्पर्य है । } 

किं च वाक्य में सर्व का चेतन से अभेद कहा है , इसलिये यदि सारे अनात्मजगत् को चेतन मानते हो तो इसी वाक्य से उल्टा ही क्यों नहीं समझ लेते कि आत्मा अचेतन है , क्योंकि अचेतनरूप से प्रसिद्ध सर्व से चेतन मानने के लिये तुम्हारे पास क्या तर्क है ? 

{ इसलिये इस तरह के आगम वाक्यों का अभिप्राय अद्वैत में ही समझना चाहिये , न कि भेद रहते उसकी आत्मरूपतादि में ।

किं च दृष्टानुभव का विरोध रहते वाक्य की प्रमाणता कहीं नहीं मानी जाती । { या अनुभव गलत होने से विरोधक्षम नहीं होगा और या वाक्य का कोई अन्य अभिप्राय होगा - यही ऐसे स्थलों पर माना जाता है । } वाक्यवश ऐसा नहीं होता कि आकाशस्थित भास्वान् आदित्य ता यज्ञांगभूत स्तम्भ से , यूप से , अभेद हो जाये और सारा संसार अँधेरे में डूब जाये ! ऐसा भी नहीं होता कि वाक्य के बल पर जड जो मुट्ठीभर दर्भ अर्थात् घास उससे यजमान का अभेद हो जाये और दर्भ की आहुति के समय यजमान को ही आग में झोंक दें ! { " आदित्य यूप है " , " यजमान मुट्ठीभर घास है " आदि वाक्य वेद में आये हैं जिन पर विचार कर मीमांसकों ने उनके अर्थ बताये हैं और गौणप्रयोग के सारूप्य , तत्कार्यकारिता आदि हेतु निर्दिष्ट किये हैं । एवं च परीक्षित प्रत्यक्षादि से विरुद्ध अर्थ में शास्त्र प्रमाण नहीं होता । वैसा माने तो पूवोक्त की तऱ अलर्गल अभिप्राय मानने पड़ेंगे । भूत - भौतिक प्रपञ्च को चेतन मानना भी ऐसी अनर्गल व्याख्या है यह तात्पर्य है }

हे राजन् ! वेदविचारकों ने सिद्धान्त स्वीकारा है कि वेदवाक्य द्वारा जिस किसी अज्ञात बात को बताया जाता है वह सब पुरुषार्थ का प्रयोजक ही होता है । { बेकार की बात शास्त्र नहीं बताता } तुम जैसा बता रहे हो वैसा आत्मा को जड या जड को चेतन समझने से कोई फल मिलता नहीं । जड की चेतनता समझने से कोई पुरुषार्थ सिद्ध नहीं होता तो ईश्वररूप वेद उसका विधान कैसे कर सकता है ? वह तो प्रमाण है और विफल का ज्ञान कराये तो अप्रमाण हो जायेगा । जीवों की अभिलाषा के योग्य को पुरुषार्थ कहते है । जो पुरुषार्थ से रहित हो उसी को अनर्थक कहते हैं । वेद कहलाने वाला शास्त्र कभी अनर्थक बात कह नहीं सकता क्योंकि पुरुषार्थ का वेदऩ , ज्ञान , कराने से ही तो उसका नाम वेद पड़ा है । आँख आदि तो इष्ट देखने को खोलें और हमें अनिष्ट दिखा दे यह संभव है लेकिन प्रमाण का व्यापार जो अज्ञातज्ञापन उसमें जब वेद प्रवृत्त होगा तो पुरुषार्थ ही बतायेगा । 

हे राजन् ! " वेद " शब्द का घटक है " विद् " धातु जिसका वाच्य है ज्ञान । उस ज्ञान में प्रयोजक अर्थात् प्रेरक होने से शब्दराशिविशेष को वेद कहा जाता है । प्रेरक को प्रयोजक और जिसे प्रेरित किया जाये उसे प्रयोज्य कहते हैं । प्रयोज्य जिस क्रिया में राग रखे उसमें प्रेरित करने वाले की प्रेरकता प्रधान मानी जाती है । प्रयोज्य जो न करना चाहे उसमें उसे प्रयुक्त करने वाला प्रयोजक गौण होता है जैसे कह भले ही दें कि " मृत्यु पुरष को मरने के लिये प्रेरित करती है " लेकिन क्योंकि पुरुष मरना चाहते नहीं इसलिये यहाँ मृत्यु को प्रेरक कहना औपचारिक ही है , लगता यही है कि " मृत्यु पुरुष को मार डालती है " पुरुष को पुरुषार्थ में ही राग होता है , अन्यत्र नहीं । मुख्य पुरुषार्थ तो सुख ही होता है । सुख का साधन भी पुरुषार्थ तो है किन्तु गौण । आत्मा की अचेनता या अनात्मा की चेतनता न सुख है और न वह कभी कहीं सुख का साधन होती है । इसलिये पुरुषार्थरूप न होने से अनात्मा की चेतनता को प्रमाण से समझने लायक नहीं कह सकते । इस प्रकार के निस्फल अर्थ के ज्ञान में वेद कैसे प्रयोजक बनेगा ? वह तो पिता के वचन की तरह प्रमाण है , प्रमेय का प्रमापक है । अनर्थक बात बताने लगे तो प्रमाण ही नहीं रह जायेगा। 

हे नरेश ! ध्यान से सुन लो - आत्मा से अतिरिक्त वेद का कोई प्रधान प्रतिपाद्य नहीं है। अतः प्रमाणों में राजा की तरह जो वेद है उससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा का स्वरूप है द्वैतवजित चिन्मात्र जो निरपेक्ष भानात्मक है । द्वैतरहित होने से वह आनन्द है । प्रपञ्चरूप द्वैत को ही जो देखने में तत्पर हैं , नाम - रूप प्रवण हैं , श्रुतिविरुद्ध शुष्क तर्कों से जिनकी बुद्धि मलिन है ऐसे लौकिक पुरुष वेद का सहारा लिये बिना खुद ही उस अद्वैत आत्मा को जान लें यह सैकड़ों जन्मों में भी सम्भव नहीं । ऐसे लोगों की बुद्धि में प्रपञ्च का विलय { अवास्तविकता } बैठ सके इस प्रयोजन से माता की तरह हमारा हित करने वाली श्रुति यों समझाती है : यह सब जो दृश्य है वह तुम्हारे हृदय में स्थित आत्मा ही है; दृश्य वस्तुतः है ही नहीं । जैसे रस्सी में भ्रम से प्रतीत होने वाला सर्प या जलधारा आदि द्वैत वास्तविक नहीं होता , अकेली रज्जु ही वास्तविक होती है , उसी तरह " यह सब आत्मा है " आदि श्रुतिमाता का अभिप्राय है कि यह सब नहीं है , केवल आत्मा है । इस प्रकार जगत् की चेतनता में आगम तो प्रमाण नहीं यह निश्चित है । 

हे राजन् ! जगत् चेतन है इस पूर्वपक्षी की मान्यता में कोई अनुमान भी नहीं है बल्कि दृश्यत्व आदि को हेतु बनाकर प्रवृत होने वाले अनुमान उल्टा ही सिद्ध करते हैं कि जगत् अचेतन है । जगत् की जडता प्रत्यक्ष से भी प्रतीत हो रही है , अतः जडतासाधक अनुमान को प्रत्यक्ष का सहारा मिलता है जिससे वह निर्बाध है । 

हे राजन् ! जगत् की चेतनता के विषय में हम लोगों को जब कोई प्रमाण नहीं हो रहा तो यह भी आशा नहीं की जा सकती कि हम जैसे किसी अन्य व्यक्ति को ऐसा समझ हो जायेगा । हम लोगों से विलक्षण किसी व्यक्ति की बोधरूपता का प्रत्यक्ष हो यह भी हम स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि वैसे व्यक्ति को उक्त ज्ञान है यह हम जानेंगे कसे ? यदि उक्त प्रत्यक्ष को सिद्ध करने वाले प्रमाण हैं तो हमें क्यों नहीं उसका अनुभव होता ? संसार में यह विचित्र दैवयोग है कि प्रमाण होने पर भी हमारे लिये वे प्रतिबद्ध हैं । { तात्पर्य है कि स्वस्थ आदि माने जाने वाले लोगों द्वारा जिन प्रमाणों का प्रयोग नहीं हो सकता वे संसारिक विषयों के प्रमाण ही नहीं होते । } जो वस्तु चेतन होने से विषय होने योग्य नहीं, वही किसी स्थानविशेष के व्यक्ति को होने वाले ज्ञान का विषय बन जाती है , हम जैसों के आत्मा में विद्यमान ज्ञान का वह विषय नहीं बनती और भेदभाव में कोई हेतु नहीं , उस वस्तु का स्वभाव ही है - यह मानना संगत नहीं है । 

इसलिये मन की चेतनता स्वीकारने पर तुम्हारे लिये विपत्ति है कि सभी अनात्मा तुम्हारे विरोधी होकर मन से अपनी जडतादि समानता के बल पर स्वयं को चेतन घोषित कर देते हैं ! यहाँ तक मन को अनात्मा किन्तु चेतन मानने की परीक्षा हुई । अब उसे आत्मा मानने पर आने वाले दोष को व्यक्त करेंगे । सावधानीपूर्वक सुनना : सावशेष
 

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