!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १६ } ~~~
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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नारायण ! श्रुति में जो प्रश्न उठाया गया कि " आत्मा कौन सा है ? " और उत्तर दिया " जो यह विज्ञानमय प्राणों में है , हृदय के अन्दर ज्योतिरूप पुरुष है वह आत्मा है । " इसका व्याख्यान मुनि याज्ञवल्क्य विस्तार से कहते हैं । पूर्वोक्त ज्ञानप्रकाश का वर्णन सुनकर राजा जनक ने मुनिवर्य याज्ञवल्क्य से पूछा " हे ब्राह्मणदेवता ! इन शरीर - इन्द्रिय आदि में आत्मा कौन सा है ? " { पूछने से स्पष्ट है कि राजा पूर्वोक्त उत्तर सही नहीं समझा था वरन् उसने संघात के स्वरूप को ही ज्ञानरूप समझ लिया था अतः संघात में ही आत्मा का अवधारण कराने के लिये " इनमें से कौन आत्मा है ? " यों प्रश्न किया । }
इस तरह जिज्ञासा व्यक्त की जाने पर मुनिश्रेष्ठ याज्ञवल्क्य ने राजा को ऐसे समझाया -
हे राजन् ! आत्मा सब जन्तुओं को प्रसिद्ध ही है । " आत्मा " इस शब्द और " आत्मा " इस ज्ञान का विषय आत्मा है यह सब जानते हैं । वह केवल शब्द ही हो या " आत्मा " इस आकार की वृत्ति ही हो ऐसी बात भी नहीं , इससे भिन्न है । चेतन , पुरुष आदि शब्दों से भी उसे ही कहा - समझा जाता है । शरीर - इन्द्रिय आदि तो घटादि की तरह साक्ष्य होने से आत्मा नहीं है । ठीक के समझना ।
हे राजन् ! अभी जो तुमने प्रश्न किया कि " आत्मा कौन सा है ? " उस प्रश्न के अनुरूप तुम्हें ज्ञान भी हुआ होगा । इस ज्ञान में जो साक्षी की तरह विद्यमान है वही आत्मा है । सब देहधारियों का वह हमेशा साक्षी है । { " साक्षी की तरह " इसलिये की वह साक्ष्य कोटि पदार्थों से भिन्न है इतना ही विवक्षित है , उसे साक्षी तो " साक्षिस्वरूपः " से कहा है । वस्तुतस्तु आत्मा साक्षी भी है नहीं , साक्षी का भी प्रत्यग्भूत रूप है क्योंकि साक्षिता अज्ञानप्रयुक्त ही होती है , साक्ष्यसापेक्ष होती है । }
मुनिवर्य याज्ञवल्क्य " विज्ञानमय " शब्द की व्याख्या करते हैं - यह आत्मा विज्ञान कहलाने वाले नाना प्रकार के अन्तःकरणों में उनसे तादात्म्याध्यास किये हुए रहता है , जैसे लोक में अग्नि लोहपिण्डों में उनसे अभिन्न हुई रह जाती है । लोहे में स्थित आग जैसे लोहमय कहलाती है , ऐसे ही अन्तःकरण में विद्यमान आत्मा विज्ञानमय कहलाती है ।
अन्तःकरणों का निजी रूप ज्ञानरहित है । आत्मा की तादात्म्यरूप संनिकटता से ही वे ज्ञान वाले होते हैं । लोहपिण्डों में गर्मी और प्रकाश नहीं होते लेकिन जब वे वह्नि अर्थात् अग्नि का तादात्म्य पा लेते हैं तब गर्म होते हैं । इसी प्रकार अन्तःकरण में होने वाली " प्रमा - अप्रमा " आदि भेद वाली ये नाना तरह की वृत्तियाँ और इनका उपादान कारण अन्तःकरण क्योंकि आत्मा का तादात्म्य पा लेते है इसलिये स्वयं भी प्रकाशमान होते हैं और सभी ओर विषयों को प्रकाशित करते हैं । वृत्तियों को चेतन से पृथक् कर समझ पाना बहुत मुश्किल होता है जैसे तपी दशा में लोहकणों को आग से पृथक् समझना कठिन होता है । ये वृत्तियाँ ही सद्रूप - असद्रूप इस विश्व को प्राशित करती है । इसलिये विज्ञानमय हुआ पुरुष चेतन अर्थात् ज्ञाता समझा जाता है , अन्यथा उसे सिर्फ ज्ञान ही समझना उचित होता । वह्नि अर्थात् अग्नि तो गर्मीरूप और प्रकाशरूप है , वह लोहमय - लोहपिण्ड से तादात्म्यापन्न - होने पर ही जलाने वाली , प्रकाश करने वाली समझी जाती है । ऐसे ही आत्मा चिन्मात्र है , अन्तःकरण से एकमेक होने पर ही वह ज्ञानवान् समझा जाता है ।
हे सौम्य ! आत्मा को श्रुतिमाता ने " प्राणों में " कहा , उसका अभिप्राय है कि देह की तरह प्राण भी आत्मा न समझ लिये जायें । इसलिये मुनिवर्य याज्ञवल्क्य राजा को समझाते है-
हे राजन् ! " प्राण " शब्द शरीरस्थित विभिन्न कार्य करने वाली वायुओं को भी कहता है और इन्द्रियों को भी । उन सभी से तादात्म्य कर आत्मा उनके व्यापारों में अर्थात् वृत्तियों में प्रयोजक बनता है । अतः उस " महादेव " को वेदवादी " प्राणों में कह देते हैं । जैसे आकाश बाहर - भीतर सर्वत्र है फिर भी उसके अवच्छेदक बनकर उसकी अभिव्यक्ति करने वाले घटा आदि में आकाश है ऐसा व्यवहार हो जाता है ; या वायु व्यापक है लेकिन वृक्ष हिलाने से व्यक्त होती है तो " वृक्षों में वायु है " ऐसा व्यवहार हो जाता है , वैसे ही परम पुरुष है विभु फिर भी कह दिया जाता है कि वह प्राणों में है ।
आत्मा को श्रुतिभगवती ने हृदय के अन्दर बताया , उसका अभिप्राय व्यक्त कर देते हैं : हे राजन् ! यह आत्मा सर्वव्यापक है फिर भी हृदय में खासकर रहता है क्योंकि सभी प्राणियों का अन्तःकरण उनके हृदय में विशेषतः प्रकट होता है । यद्यपि लोग अपने सारे ही शरीर के सुख - दुःख का अनुभव करते हैं तथापि सबको लगता है कि विशेषकर हृदय में प्रकाशमान ज्ञान से सुखादि का अनुभव हो रहा है । सूर्य का सर्वत्र स्थित तेज समान है फिर भी घड़े , मणि और सूर्यकान्त में वह किसी विषमता से विद्यमान है ; ऐसे ही आत्मा व्यापक है फिर भी कुछ विषमता है : जैसे यह सूर्यप्रकाश घड़े में है सही लेकिन चमचमाता हुआ नहीं दीखता , वैसे ही आत्मा शरीर से बाहर भी है सही लेकिन अनुभव करता हुआ नहीं समझ आता । मणि में यही सूर्य प्रकाश चमकता हुआ तो मिलता है पर जलाने की सामर्थ्य वाला नहीं मिलता , ऐसे ही हृदय से अन्यत्र शरीर में सुख - दुःख तो उपलब्ध होते हैं पर ज्ञान का खास फल जो अनुसंधान , विचार है , वह उपलब्ध नहीं होता। सूर्यकान्त में दाह और प्रकाश दोनों व्यक्त हो जाते हैं , इसी तरह हृदय में विचार सहित सुख - दुःख उपलब्ध हो जाते हैं । इस प्रकार व्यापक आत्मा को हृदय में कहना सार्थक है ।
हे सौम्य ! " हृदि " का एक ढंग से मुनि ने अर्थ किया । अब प्रकारान्तर से राजा को समझाते हैं : हे राजन् ! हृदयकमल सभी इन्द्रियों का आधार है और संसाररूप चित्र धारण करने वाले अन्तःकरण का भी वही आधार है । { यह बात शाकल्य ब्राह्मण में समझा चुके हैं । इन्द्रियाँ और मन आत्मा को व्यक्त करने की स्फुट उपाधियाँ हैं क्योंकि विचार , ज्ञान और क्रिया से स्पष्ट ही आत्मा का पता चलता है । इनका आधार होने से हृदय को आत्मा का आधार कहना संगत है । }
और भी कारण है कि आत्मा को हृदय में श्रुति द्वारा कहा गया है - सद्गुणसम्पन्न अधिकारी गुरुओं के और शास्त्र के उपदेशानुसार ब्रह्मचर्यादिसाधनों से युक्त हो योग के 8 आठ अंगों का अभ्यास कर आत्मा का साक्षात्कार हृदय में करते हैं । { इसीलिये श्रुति ने आत्मा को " हृदि " बताया है । आत्मा की " दहर " आदि प्रधान उपासनायें { उपनिषदों में दहर विद्या प्रकरण आया है । } हृदय में की जाती हैं जिनसे वहीं आत्मदर्शन होता है । अहम् का मुख्यानुभव हृदय में है , अतः " अहंग्रहोपासना " भी हृदय में होती है और जब " अहम् " को ब्रह्म समझते हैं तब भी हृदय में ही समझा जाता है । }
किं च मरते समय भावी शरीर का जो ज्ञान नाडीमार्ग को प्रकाशित करता है वह उत्पन्न हृदय में ही होता है , इसलिये भी आत्मा हृदय में कहा है - हे सौम्य ! मुनि यह समझाते हुए कहते हैं :
हे राजन् ! ब्रह्मलोक , पितृलोक और कीट - पतंगादि योनियाँ ये तीन स्थान प्रसिद्ध हैं । मरकर व्यक्ति इन्हीं में से किसी स्थान पर जाता है । मरणासन्न व्यक्ति के हृदय के अग्रभाग में ही वह प्रकाश होता है जो उचित नाडीमार्ग दिखलाता है । { इसलिये मरते समय हृदय में सिमटकर तभी बाहर जाता है जिससे आत्मा " हृदय में " में कह दिया गया है । }
जैसे सूर्य का प्रकाश सर्वत्र है फिर भी " मण्डल में प्रकाश है " विशेष - उपलब्धि के अभिप्राय से कहा जाता है , वैसे ही सर्वव्यापक आत्मदेव भी पूर्वोक्त 5 पाँचों हेतुओं से हृदय में कहा गया है ।
हे सौम्य ! आगे श्रुति ने आत्मा को " अन्तर्ज्योति " कहा है , इसका अभिप्राय मुनि राजा को समझाते हैं : सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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